श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “बरसों बाद…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 102 ☆
☆ बरसों बाद… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆
बरस दर बरस समय तेजी से बीतता चला जा रहा है। जिसने समय के महत्व को समझा उसने सब कुछ पा लिया और जो मनोरंजन की दुनिया में खोया रहा वो आज भी उसी मोड़ पर इंतजार करता हुआ देखा जा सकता है। आज चर्चा इस बात पर नहीं कि समय का सदुपयोग कैसे करें बल्कि एक नया कथानक है कि जब दो सफल लोग मिलते हैं तो एक दूसरे से किस प्रकार की अपेक्षा रखते हैं।
ट्रिन- ट्रिन घण्टी बज रही थी। मोबाइल उठाते हुए रीमा ने कहा हेलो…
उधर से आवाज आयी, “रीमा जी मैं संतोष बोल रहा हूँ।” आज मेरी पुस्तकों का विमोचन है आप अवश्य आइयेगा। नेहा जी आयी हुईं हैं। उन्होंने खासतौर पर आपको आमंत्रित करने के लिए कहा है। हम सभी आपका इंतजार करेंगे।
रीमा ने कहा, “सर्वप्रथम पुस्तकों के विमोचन हेतु आपको हार्दिक बधाई। नेहा से मिलने मैं जरूर आऊँगी।”
मन ही मन सोचते हुए उन्होंने कहा आज तो बच्चों को लेकर बाजार जाना था। अब क्या करूँ? कोई बात नहीं अगले रविवार को चली जाऊँगी, सोचते हुए वो तेजी से काम निपटाने लगीं।
कुछ ही देर में लाल बार्डर की साड़ी पहन कर बड़ी सी बिंदी माथे पर सजाए पूरी मैचिंग के साथ वे मिलने की खुशी समेटे हुए चल दीं।
तभी नेहा का फोन उनके पास आया दीदी आप जल्दी आ जाना क्योंकि कार्यक्रम शुरू होने पर बातचीत नहीं हो पाएगी।
हाँ नेहा मैं पहुँच रही हूँ, तुम समय पर आ जाना।
हाँ दीदी मैं पहुँच जाऊँगी, मीठे स्वर से नेहा ने कहा।
15 मिनट बाद रीमा कार्यक्रम स्थल में पहुँच चुकी थी। वहाँ से उत्सुकता पूर्वक उसने फोन लगाया। बदले में नेहा ने कहा दीदी कुछ लोग आ गए हैं बस थोड़ी देर से आती हूँ।
लगभग 2 घण्टे बीत जाने के बाद भी जब नेहा नहीं आयी तो रीमा जी सोचने लगीं देखो मैं तो अपना जरूरी कार्य एक हफ्ते के छोड़कर इससे मिलने आयीं हूँ और इसने शायद अपना रुतबा दिखाने के लिए मुझे बुलाया था।
कार्यक्रम में सभी लोग नेहा जी… करते हुए उनका गुणगान कर रहे थे और रीमा बार -बार अपने हाथों की घड़ी देखे जा रही थी। तभी नेहा ने मुस्कुराते हुए हॉल में कदम रखा, सभी लोग नेहा जी आ गयीं कहते हुए फूल माला लेकर दौड़ पड़े।
नेहा ने आगे आकर रीमा के पैर छुए और कहा सबके आने से देर हो गयी।
मुस्कुराते हुए रीमा ने कहा कोई बात नहीं। मन ही मन वो समझ चुकीं थीं कि नेहा अब नेहा जी बन चुकीं हैं उससे भूल हो गयी थी वो तो उसी बरसो पुरानी नेहा से मिलने जो आ गयी थी।
ऐसा अक्सर होता है जब दूसरों से ज्यादा अपेक्षाएँ हम अपने स्तर पर बना लेते हैं। हमें सोचना होगा बदलाव जीवन का बड़ा सत्य है। आज को जिएँ तभी कल सफल होगा। मिलना- जुलना तो एक बहाना है क्या आपने कभी सोचा कि त्रेतायुग का दोस्ती का उदाहरण अक्सर दिया जाता है किंतु वहाँ भी सुदामा ही द्वारिकाधीश के पास गए थे वे नहीं आए थे। सो दोस्ती बराबरी में ही निभती है या तो बढ़ते रहो या उचित समय पर राहें बदल लो।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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