श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय संस्मरण “गर हौसले बुलंद हों…”।)
☆ संस्मरण # 142 ☆ ‘गर हौसले बुलंद हों…’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
देश की पहली माइक्रो फाइनेंस ब्रांच में काम करते हुए हमने महसूस किया कि – ‘गर हौसले बुलंद हों तो’ – गरीब निरक्षर महिलाएं, जो बैंक विहीन आबादी में निवास करती है, जो लोन लेने के लिए साहूकारों के नाज- नखरों को सहन करती हुई लोन लेती थीं, जो बैंकों से लोन लेने के बारे में स्वप्न में भी नहीं सोच सकतीं थ , ऐसी महिलाओं के आर्थिक उन्नयन में माइक्रो फाइनेंस की अवधारणा मील का पत्थर साबित हुई थी।
किसी ने कहा है ” कमीं नहीं है कद्र्ता की ….कि अकबर करे कमाल पैदा ….
इस भाव को स्व सहायता समूह से जुडी महिलाओं ने समाज को बता दिया।
माइक्रो फाइनेंस की अवधारणा में रिमोट एरिया एवं बैंक विहीन आबादी के स्व सहायता समूह की महिलाओं के आर्थिक उन्नयन हेतु छोटे छोटे लोन दिये जाते हैं ,लोन देते समय सेवाभाव एवं परोपकार की भावना होना बहुत जरूरी होता है , लोन राशि की उपयोगिता के सर्वे , जांच एवं इन महिलाओं की इनकम जेनेरेटिंग गतिविधियों का माइक्रो फाइनेंस ब्रांच में काम करते हुए हमने बार बार सर्वे/अवलोकन किया ,हमारे द्वारा किये गए सर्वे से लगा कि इस आवधारणा से कई जिलों की हजारों महिलाओं में न केवल आत्म विश्वास पैदा हुआ बल्कि इन स्माल लोन ने उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत बनाया।
“बेदर्द समाज और अभावों के बीच कुछ कर दिखाना आसान नहीं होता पर इन महिलाओं के होसले बुलंद हुए …..”
एक गांव में एक खपरेल मकान में चाक पर घड़े को आकार देती ३० साल की बिना पढी़ लिखी लखमी प्रजापति को भान भी नहीं रहा होगा कि वह अपनी जैसी उन हजारों महिलाओं के लिए उदाहरण हो सकती है जो अभावों के आगे घुटने टेक देती है , दो बच्चों की माँ लक्ष्मी ने जब देखा कि रेत मजदूर पति की आय से कुछ नहीं हो सकता तो उसने बचपन में अपने पिता के यहाँ देखा कुम्हारी का काम करने का सोचा , काम इतना आसान नहीं था लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी, महीनों की लगन के बाद उसने ये काम सीखा और आज वह छै सौ रूपये रोज कमा रही है इस प्रकार स्व सहायता समूह से जुड़ कर अपने परिवार का उन्नयन कर देवर की शादी का खर्चा भी उसी ने उठाया और बच्चों को अच्छे स्कूल में भी पढ़ाया।
शमा विश्वकर्मा भी ऐसी ही जीवंत खयालों वाली महिला मिली जिसने बिना पढ़े लिखे रहते हुए भी हार नहीं मानी और अपने पैरों पर खड़ी हो गई , उसने बताया था कि पहले रेशम केंद्र में मजदूरी करने जाती थी तो ७०० / मिलते थे लेकिन हमारे स्वसहायता समूह ने रेशम कतरने की मशीन का लोन दिया तो मशीन घर आ गई मशीन घर पर होने से यह फायदा हुआ कि काम के घंटे ज्यादा मिल गए और वह ८०००/ से ज्यादा कमाने लगी है …..
एक और गाँव की दो महिलाओं ने तो सहकारिता की वह मिसाल पेश की जिसकी जितनी तारीफ की जाय कम है , गाँव की अपने जैसी दस महिलाओं ने स्व सहायता समूह बनाकर लोन लिया फिर सिकमी (लीज) पर खेती करने लगीं , समूह की सब महिलाएं खेतों में हल चलने के आलावा वह सब काम भी करती है जो अभी तक पुरुष करते थे …….. इसके बाद इन महिलाओं ने गांव में शराब की दुकान के सामने जनअभियान चला कर गांव से शराब की दुकान हटवा दी और गांव के किसानों के घरों में आशा की किरणें फैला दीं ।
शाखा के सर्वे और फालोअप के ये दो चार उदाहरण से हमें पता चला कि स्वसहायता समूह की महिलाएं बड़े से बड़े काम करने में अग्रणी भूमिका निभा सकतीं हैं, यदि इन्हें अच्छा मार्गदर्शन और प्रोत्साहन दिया जाए। जब इन सब महिलाओं से बात की गई तो उनका कहना था कि ….गरीबी अशिक्षा कुपोषण आदि की समस्याओं से सब कुछ डूबने की निराश भावना से उबरने के लिए जरूरी है कि गाँव एवं शहरों में हो रहे बदलाव को महिलाएं सकारात्मक रूप में स्वीकार करें।
© जय प्रकाश पाण्डेय
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