डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सब्र और ग़ुरूर। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 138 ☆
☆ सब्र और ग़ुरूर ☆
‘ज़िंदगी दो दिन की है। एक दिन आपके हक़ में और एक दिन आप के खिलाफ़ होती है। जिस दिन आपके हक़ में हो, ग़ुरूर मत करना और जिस दिन खिलाफ़ हो, थोड़ा-सा सब्र ज़रूर करना।’ सब दिन होत समान अर्थात् समय परिवर्तनशील है; पल-पल रंग बदलता है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति सुख में कभी फूलता नहीं; अपनी मर्यादा व सीमाओं का उल्लंघन नहीं करता तथा अभिमान रूपी शत्रु को अपने निकट नहीं फटकने देता, क्योंकि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। वह दीमक की तरह बड़ी से बड़ी इमारत की जड़ों को खोखला कर देता है। उसी प्रकार अहंनिष्ठ मानव का विनाश अवश्यंभावी होता है। वह दुनिया की नज़रों में थोड़े समय के लिए तो अपना दबदबा क़ायम कर सकता है, परंतु एक अंतराल के पश्चात् वह अपनी मौत स्वयं मर जाता है। लोग उसके निकट जाने से भी गुरेज़ करने लगते हैं। इसलिए मानव को इस तथ्य को सदैव अपने ध्यान में रखना चाहिए कि ‘सुख के सब साथी दु:ख में न कोय।’ सो! मानव को सुख में अपनी औक़ात को सदैव स्मरण में रखना चाहिए, क्योंकि सुख सदैव रहने वाला नहीं। वह तो बिजली की कौंध की मानिंद अपनी चकाचौंध प्रदर्शित कर चल देता है
इंसान का सर्वश्रेष्ठ साथी उसका ज़मीर होता है; जो अच्छी बातों पर शाबाशी देता है और बुरी बातों पर अंतर्मन को झकझोरता है। किसी ने सत्य ही कहा है कि ‘हां! बीत जाती है सदियां/ यह समझने में/ कि हासिल करना क्या है?
जबकि मालूम यह भी नहीं/ इतना जो मिला है/ उसका करना क्या है?’ यही है हमारे जीवन का कटु यथार्थ। हम यह नहीं जान पाते कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है; हम संसार में आए क्यों हैं और हमारे जीवन का प्रयोजन क्या है? इसलिए कहा जाता है कि अच्छे दिनों में आप दूसरों की उपेक्षा मत करें; सबसे अच्छा व्यवहार करें तथा इस बात पर ध्यान केंद्रित करें कि सीढ़ियां चढ़ते हुए बीच राह चलते लोगों की उपेक्षा न करें, क्योंकि लौटते समय वे सब आपको दोबारा अवश्य मिलेंगे। सो! अच्छे दिनों में ग़ुरूर से दूर रहने का संदेश दिया गया है।
जब समय विपरीत दिशा में चल रहा हो, तो मानव को थोड़ा-सा सब्र अथवा संतोष अवश्य रखना चाहिए, क्योंकि यह सुख वह आत्म-धन है; जो हमारी सकारात्मक सोच को दर्शाता है। इसलिए दु:ख को कभी अपना साथी मत समझिए, क्योंकि सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है। इसलिए कहा जाता है कि जो सुख में साथ दें, रिश्ते होते हैं/ जो दु:ख में साथ दें, फरिश्ते होते हैं।’ विषम परिस्थितियों में कोई कितना ही क्यों न बोल; स्वयं को शांत रखें, क्योंकि धूप कितनी तेज़ हो; समुद्र को नहीं सुखा सकती। सो! अपने मन को शांत रखें; समय जैसा भी है– अच्छा या बुरा, गुज़र जाएगा।
विनोबा भावे के अनुसार ‘जब तक मन नहीं जीता जाता और राग-द्वेष शांत नहीं होते; तब तक मनुष्य इंद्रियों का गुलाम बना रहता है।’ सो! मानव को स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना होगा। इसके लिए वाशिंगटन उत्तम सुझाव देते हैं कि ‘अपने कर्त्तव्य में लगे रहना और चुप रहना बदनामी का सबसे अच्छा जवाब है।’ हमें लोगों की बातों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए, क्योंकि लोगों का काम तो दूसरों के मार्ग में कांटे बिछा कर पथ-विचलित करना है। यदि आप कुछ समय के लिए ख़ुद को नियंत्रित कर मौन का दामन थाम लेते हैं और तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देते, तो उसका परिणाम घातक नहीं होता। क्रोध तो दूध के उफ़ान की भांति आता है; जो पल भर में शांत हो जाता है। सो! मौन रह कर अपने कार्य को सदैव निष्ठा से करें और व्यस्त रहें– यही सबसे कारगर उपाय है। इस प्रकार आप निंदा व बदनामी से बच सकते हैं। वैसे भी बोलना एक सज़ा है। इसलिए मानव को यथा-समय, यथा-स्थान उचित बात कहनी चाहिए, ताकि हमारी प्रतिष्ठा व मान-सम्मान सुरक्षित रह सके। सच्ची बात यदि मर्यादा में रहकर व मधुर भाषा में बोल कर कहें, तो सम्मान दिलाती है; वरना कलह का कारण बन जाती है। ग़लत बोलने से मौन रहना श्रेयस्कर है और यही समय की मांग है। दूसरे शब्दों में वाणी पर नियंत्रण व मर्यादापूर्वक वाणी का प्रयोग मानव को सम्मान दिलाता है तथा इसके विपरीत आचरण निरादर का कारण बनता है।
कबीरदास के मतानुसार ‘सबद सहारे बोलि/ सबद के हाथ न पांव/ एक सबद करि औषधि/ एक सबद करि घाव’ अर्थात् वाणी से निकला एक कठोर शब्द घाव करके महाभारत करा सकता है तथा वाणी की मर्यादा में रहकर बड़े-बड़े युद्धों पर नियंत्रण किया जा सकता है। आगे चलकर वे कहते हैं कि ‘जिभ्या जिन बस में करी/ तिन बस किये जहान/ नहीं तो औगुन उपजै/ कहें सब संत सुजान।’ इस प्रकार मानव अपने अच्छे स्वभावानुसार बुरे समय को टाल सकता है। दूसरी ओर ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान।’ रहीम जी का यह दोहा भी मानव को आत्म-संतुष्ट रहने की सीख देता है। मानव को किसी से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि जो मिला है अर्थात् प्रभु प्रदत्त कांटों को भी पुष्प-सम मस्तक से लगाना चाहिए और प्रसाद समझ कर ग्रहण करना चाहिए।
भगवद्गीता का यह संदेश अत्यंत सार्थक है कि ‘जो हुआ है, जो हो रहा है और जो होगा निश्चित है।’ इसमें मानव कुछ नहीं कर सकता। इसलिए उसे नतमस्तक हो स्वीकारना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि ‘होता वही है जो मंज़ूरे ख़ुदा होता है।’ सो! उस परम सत्ता की रज़ा को स्वीकारने के अतिरिक्त मानव के पास कोई विकल्प नहीं है।
मीठी बातों से मानव को सर्वत्र सुख प्राप्त होता है और कठोर वचन का त्याग वशीकरण मंत्र है। तुलसी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। मानव को अपनी प्रशंसा सुन कर कभी गर्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह आपकी उन्नति के मार्ग में बाधक है। इसलिए कठोर वचनों का त्याग वह वशीकरण मंत्र है; जिसके द्वारा आप दूसरों के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। सो! जीवन में मानव को कभी अहम् नहीं करना चाहिए तथा जो मिला है ; उसी में संतोष कर अधिक की कामना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह मार्ग हमें पतन की ओर ले जाता है। दूसरे शब्दों में वह हमारे हृदय में राग-द्वेष के भाव को जन्म देता है और हम दूसरों को सुख-सुविधाओं से संपन्न देख उनसे ईर्ष्या करने लग जाते हैं तथा उन्हें नीचा दिखाने के अवसर तलाशने में लिप्त हो जाते हैं। दूसरी ओर हम अपने भाग्य को ही नहीं, प्रभु को भी कोसने लगते हैं कि उसने हमारे साथ वह अन्याय क्यों किया है? दोनों स्थितियों में इंसान ऊपर उठ जाता है और उसे वही मनोवांछित फल प्राप्त होता है और वह जीते जी आनंद से रहता है। ग़मों की गर्म हवा का झोंका उसका स्पर्श नहीं कर पाता।
© डा. मुक्ता
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