श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है अनुभवों एवं परिकल्पना में उपजे पात्र संतोषी जी पर आधारित श्रृंखला “जन्मदिवस“।)
☆ कथा कहानी # 38 – जन्मदिवस – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
शाखा में काम काज भले ही देर से शुरु हुआ था पर स्टाफ की द्रुतगति से काम निपटाने की क्षमता और कस्टमर्स के सहयोग ने समय की घड़ी को भी अंगूठा दिखा दिया था जिसमें उत्प्रेरक बनी मिठाइयों का स्वाद भी कम नहीं था. जब बैंक के सामान्य दिनों की तरह यह दिन भी अपने आखिरी ओवर की ओर बढ़ रहा था तो मुख्य प्रबंधक महोदय के निर्देशानुसार, परंपरा के विपरीत शाखा के मीटिंग हॉल में जन्मदिन मनाने की तैयारियां वहीं लोग कर रहे थे जो इंतजाम अली के नाम से जाने जाते थे हालांकि इस बार उनके वरिष्ठ याने संतोषी साहब उनके साथ नहीं थे. परंपरा और पार्टियां एक दूसरे को बड़ी आसानी से नजरअंदाज कर देती हैं, उसी तरह जैसे क्रिकेट के बैट्समैन के शतक को लोग उसके अगले पिछले रिकॉर्ड को भूलकर इंज्वॉय करते हैं.
शाम को ठीक 5:30 बजे सभी लोग मीटिंग हॉल में आना शुरु कर चुके थे और जो पहले आ गये थे वे व्यवस्था की गुणवत्ता के निरीक्षण में लग चुके थे. चूंकि व्यवस्था बहुत विशालकाय नहीं थी तो सामान्य प्रयास में ही नियंत्रण में आ चुकी थी. ठीक 6बजे मुख्य प्रबंधक महोदय और संतोषी जी ने हॉल में एक साथ प्रवेश किया जो इस छोटे से आयोजन के लिये हर हाल में तैयार हो चुका था. शाखा के 20% “सदा लेटलतीफों” का इंतज़ार छोड़कर, बर्थडे केक और उस पर लगी कैंडल्स का “जन्मदिवस संस्कार” किया गया और केक के रसास्वादन का शुभारंभ संतोषी जी के मुखारविंद से हुआ जो कि होना ही था. इस रस्म में मुख्य प्रबंधक महोदय का उत्साह और सक्रियता प्रशंसनीय रही. सभी खुश थे क्योंकि संतोषी साहब से मिलकर लोग खुश हो ही जाते हैं, आप भी तो. नकारात्मकता से उनका न तो लेना देना था न ही कोई दूर का संबंध. बहरहाल शाखा में एक अच्छी परंपरा की शुरुआत हुई जो सहकर्मियों को पास आने का एक और अवसर प्रदान कर रही थी. यह सकारात्मकता का मिलन समारोह था जो संतोषी जी के सहज व्यक्तित्व से साकार हो रहा था.
शाखा की युवावाहिनी खुश तो थी पर बहुत व्यग्र भी, कारण स्पष्ट था कि ये लोग एक दिन में ही CAIIB के तीनों पार्ट क्लियर करना चाहते थे. पर संतोषी साहब ने उनको प्रेम से समझाया कि आज के इस दिन पर जो मेरे लिये विशिष्ट भी है, मेरे परिवार का भी आपके समान ही अधिकार है. तो इन सुनहरे पलों का एक भाग मुझे उनके साथ भी गुजारने दीजिए. बरस दर बरस बीतते बीतते ऐसा वक्त भी आता है जब बच्चे दूर होकर अपनी अपनी नई दुनियां में व्यस्त हो जाते हैं. बैंक की महफिलें भी साठ के पार उठ जाती हैं और रह जाते हैं पति और पत्नी. पति पत्नी का ये साथ भी सौभाग्य की शर्तो से बंधा होता है कि कौन किसका साथ कब तक निभाता है. तो ये जो वर्तमान है, वह मैं पूरी शिद्दत से जीना चाहता हूँ ताकि मन में कोई पछतावा न रहे.
हालांकि बाद में युवावाहिनी की डिमांड भी पूरी हुई पर उसका वर्णन अभी सोचना और लिखना बाकी है. इसलिए कृपया इंतजार करें, मजबूरी है.
© अरुण श्रीवास्तव
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