श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “योग्य और उपयोगी”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 106 ☆
☆ योग्य और उपयोगी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆
चलिए इस कार्य को मैं कर देती हूँ मुस्कुराते हुए रीना ने कहा।
अरे भई प्रिंटिंग का कार्य कोई सहज नहीं होता। आपको इसके स्किल पर कार्य करना होगा। स्वयं में कोई न कोई ऐसी विशेषता हो कि लोग आपको याद करें समझाते हुए संपादक महोदय ने कहा।
मैं रचनाओं को एकत्रित करुँगी। संयोजक के रूप में मुझे शामिल कर लीजिए।
देखिए आजकल वन मैन आर्मी का जमाना है। जब हमको ऐसे लोग मिल रहे हैं तो आपके ऊपर समय क्यों व्यर्थ करें।
हाँ ये बात तो है। अब इस पर चिंतन मनन करुँगी। क्या ऐसा हम सबके साथ भी होता है। अगर होता है तो उपयोगी बनें। माना कि उपयोगिता अहंकार को बढ़ावा देती है।अपने आपको सर्वे सर्वा समझने की भूल करते हुए व्यक्ति कब अहंकार रूपी कार में सवार होकर निकल पड़ता है पता ही नहीं चलता। अपने रुतबे के चक्कर में कड़वे वचन, झूठ की चादर, मंगल को अमंगल करने की कोशिश इसी उधेड़बुन में उलझे हुए जीवन व्यतीत होने लगता है। सब से चिल्ला कर बोलना , खुद को साहब मान कर चिल्लाने से ज्यादा प्रभाव पड़ता है। ध्वनि प्रदूषण से भले ही सामने वाला अछूता रह जाए किन्तु अड़ोसी- पड़ोसी का ध्यानाकर्षण अवश्य हो जाता है।
अपने नाम का गुणगान सुनने की लत; नशे से भी खतरनाक होती है। जिसने भी सत्य समझाने का प्रयास किया वही दुश्मन की श्रेणी में आ खड़ा होता है। उसे दूर करने की इच्छा मन में आते ही आदेश जारी करके अलग- थलग कर दिया जाता है।
बेचारे घनश्याम जी दिन भर माथा पच्ची करते रहते हैं। कोई भी ढंग का कार्य उन्हें नहीं आता बस कार्य को फैलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं करते किन्तु अधिकारी उनके इसी गुण के कायल हैं। रायता फैलाने से ज्यादा विज्ञापन होता है। कोई बात नहीं बस नाम हमारा हो, यही इच्छा मौन साधने को बलवती करती है। अपनी खोल में बैठ कर मूक दर्शक बनें रहना और जैसे ही मौका मिला कुछ भी लिखा और पोस्टर लेकर हाजिर। हाजिर जबावी में तो तेनालीराम व बीरबाल का नाम था किंतु यहाँ तो हुजूर सब कुछ खुद करते हुए देखे जा सकते हैं।
सच कहूँ तो ऐसी व्यवस्था से ही कार्यालय चलते हैं। आपसी सामंजस्य तभी होता है जब माँग और पूर्ति बनी रहे। एक दूसरे को आगे बढ़ाते हुए चलते जाना ही जीत का मूल मंत्र होता है।
जो कुछ करेगा उसे जीत का सेहरा अवश्य मिलेगा। बस रस्सी की तरह पत्थर पर निशान बनाने को आतुर होना पड़ेगा। हर जगह लोग कर्म के पुजारी बन रहे हैं। कुछ लगातार स्वयं को अपडेट कर रहे हैं तो कुछ भूतकाल में जीते हुए डाउनग्रेड हो रहे हैं। अब आपके ऊपर है कि आप किस तरह की जीवनशैली के आदी हैं।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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