डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘जब आवै संतोष धन’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 94 ☆

☆ लघुकथा – जब आवै संतोष धन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

योग के एक सप्ताह के कोर्स का अंतिम दिन। गुरु जी का आदेश था कि आज सबको साथ बैठकर भोजन करना है और खाना  भी अपने घर से अपनी पसंद का ही  लाना है। सब बहुत खुश थे, ऐसा लग रहा था कि ना जाने कब से मन-  माफिक भोजन मिला ही नहीं। उसने पत्नी से अपनी मनपसंद चीजें बनवाईं। पत्नी ने छोटे- छोटे डिब्बों में बड़े करीने से अचार, चटनी, पापड़ से लेकर पति की पसंद की सब्जी, मिठाई सब चीजें रख दीं। योग की कक्षा में एक पेड़ के नीचे सबको गोलाकार बैठा दिया और कहा गया – ‘सब अपनी – अपनी थाली में अपना खाना परोस लें।‘  सबके सामने रखीं थालियां तरह – तरह के व्यंजनों से  सज गईं।  गुरु जी का आदेश हुआ – ‘ अब ये थालियां आगे बढ़ाई जाएंगी।‘  मतलब ? एक बेचैन साधक ने पूछा। गुरु जी मुस्कुराते हुए बोले – ‘अपनी थाली अपने आगेवाले व्यक्ति को देते जाइए। इस प्रकार थालियां गोलाकार तब तक घूमती रहेंगी जब तक मैं रुकने का आदेश नहीं देता।‘  हर किसी की थाली एक – दूसरे के हाथों से  होती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। किसी की आँखें अपनी मनपसंद थाली का पीछा कर रही थीं तो कोई अनेक व्यंजनोंवाली थाली पर नजर गढ़ाए बैठा था। पर थालियाँ तो आगे ही सरकती जा रही थीं ।  थोड़ी देर बाद गुरु जी ने कहा – रुको, अब जिसके हाथ में जो थाली है उसे अपने सामने रखो और भोजन शुरू करो।

 योग की कक्षा यहीं समाप्त होती है।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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