श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख “पारिवारिक रिश्ते “।)
☆ कथा कहानी # 39 – पारिवारिक रिश्ते ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
मां की ममता की हकदार तो सभी संताने होती हैं और उन्हें मिलती भी है पर निर्भरता बेटों की मां पर बहुत ज्यादा होती है. मां के लिये बेटों से जुड़े भविष्य के सपनों, आकांक्षाओं के पूरे होने की उम्मीद रहती है जबकि बेटियों का वैवाहिक जीवन सफल,समृद्ध,सुखी हो, पति का प्यार और पति के पेरेंट्स का स्नेह मिलता रहे, यही कामनायें मां करती हैं.बेटियां उच्च और महंगी शिक्षा प्राप्त कर स्वर्णिम कैरियर बनाते हुये आत्मनिर्भर बनें और अपने जीवन के हर महत्वपूर्ण फैसले खुद लें, यह बेटियों की इच्छा तो होती है पर ये उपलब्धि पाने का लक्ष्य मां के मन के अंदर की असुरक्षा रूपी भय को दूर नहीं कर सकता. शायद यही सदियों से भारतीय संस्कृति के साइड इफेक्ट हैं जिन्हें हर मां और वो बेटी भी जब मां बनती है तो अपने बेटी के लिये महसूस करती है. हम लोग कितनी भी प्रगति कर लें और बेटियाँ कितनी भी शिक्षित होकर आत्मनिर्भर बन जायें पर पेरेंट्स के दिलों से ये असुरक्षा का भय कभी जाता नहीं है.बेटों का अकेले कहीं भी और कभी भी आना जाना अनुशासन की दृष्टि से भले ही नियंत्रित किया जाय पर असुरक्षा के लिहाज से पेरेंट्स के दिलों में कभी भी चिंता उत्पन्न नहीं करता.
फिल्मों में भी मां और बेटे का प्यार और एक दूसरे के लिये हद से गुजर जाना हिट फार्मूला है. इन भावनाओं का दोहन, फिल्म के हिट होने की गारंटी होती है. सारे सिंगिग और डांसिंग रियल्टी शोज़ के एक एक एपीसोड मां के नाम रिजर्व होते हैं और viewership के मामले में ये देशभक्ति के एपीसोड के साथ साथ ही हमेशा पहली पायदान पर होते हैं.
बेटियां पिता के लिये बहुत मूल्यवान और शायद दिल के ज्यादा नज़दीक होती हैं,यह एक बायोलाजिकल फेक्ट है पर पिता और बेटी के खूबसूरत रिश्तों और संवेदनाओं को उकेरती इक्का दुक्का फिल्में ही बनी हैं. एक फिल्म याद आती है “परिचय” जिसमें पिता और बेटी का किरदार संजीव कुमार और जया भादुड़ी ने निभाया था. हालांकि संजीव कुमार बहुत कम समय ही फिल्म में रहे. ये दोनों ही कलाकार अभिव्यक्ति के मामले में संवाद पर निर्भर नहीं हैं. इनकी आंखें वो सब दर्शकों के मन तक पहुँचा जाती हैं जो भावनात्मक भारी भरकम डॉयलाग भी नहीं कर पाते.एक और फिल्म है”पीकू” जिसमें अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोन के बीच पिता और पुत्री के रिश्ते को बहुत ही खूबसूरती से फिल्माया गया था.अपनी आंखों से बहुत कुछ कहने वाले अभिनेता हैं “अमिताभ बच्चन जिनकी फिल्में ” काला पत्थर और शक्ति ” में उनकी खामोश आवाज पर बोलती आँखों से दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं.शक्ति में तो अपनी मौजूदगी पर एक दूसरे पर भारी पड़ते अभिनेता थे दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन.. कमाल के सीन थे फिल्म शक्ति के जिसके बारे में अमिताभ बच्चन ने स्वंय कहा था कि जब मैं सीन के दौरान दिलीप साहब की आंखों में देखता था तो उनके चुंबकीय व्यक्तित्व से मोहित होकर खुद एक्टिंग करना भूल जाता था. दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन ही ऐसे दो अभिनेता हैं कि जब ये चुप रहते हैं तो इनकी आंखे बोलती हैं और वह सब संप्रेषित हो जाता है जिसके लिये डॉयलाग भी कम पड़े ,पर जब ये बोलते हैं तो इनकी बेमिसाल आवाजें सुनकर लगता है कि बस सुनते जाइये सुनते जाइये. लीजिए इनका जिक्र करते करते हम भी भटक गये. इन अभिनेताओं के चक्कर में भटकना स्वाभाविक भी था.
पिता और बेटी के अनूठापन लिये हुये स्नेह का रिश्ता, एक दूसरे पर निर्भरता, बेटी के विवाह के बाद खालीपन महसूस करते पिता और ससुराल में अपने पिता की छवि को तलाशती बेटी पर कोई फिल्म बनी हो याद नहीं आता. अगर बनती भी तो इन भूमिकाओं को न्याय बलराज साहनी, संजीव कुमार और जया भादुड़ी ,दीपिका पादुकोन जैसे ही अपनी भावप्रवणता से दे पाते और निर्देशक भी फिर उसी स्तर के ही ये सब संभव कर पाते.
© अरुण श्रीवास्तव
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