श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 148 ☆ सदाहरी ?

आवश्यक मीटिंग में भाग लेने के लिए निकला हूँ। सामान्यतः भीड़भाड़ के मुकाबले तुलनात्मक रूप से कम भीड़ वाली जगह से निकलना मुझे पसंद है, फिर भले ही रास्ता कुछ लंबा ही क्यों ना हो। इसी स्वभाव के चलते भीड़भाड वाले सिग्नल के बजाय बीच की एक गली से निकला। पाया कि जिस भीड़-भड़क्के से बचने के लिए इस गली में प्रवेश किया था, उससे किसी प्रकार की मुक्ति का कोई लक्षण यहाँ भी नहीं दिख रहा है। अनुभव हुआ कि भीड़ के अधिकांश लोग गर्दन ऊँची किये कुछ देख रहे हैं। खरबूज़ों को देखकर खरबूज़े ने रंग बदला और मेरी गरदन भी ऊँची होकर उसी दिशा में देखने लगी।

आँखों ने देखा कि खेल-तमाशा दिखाने वाला एक नट सड़क पर चला जा रहा है। आगे-आगे चलती उसकी पत्नी डफली बजा रही है। अलबत्ता इसमें मजमा जुड़ने जैसी कोई बात नहीं थी। गले से पैंतालीस डिग्री ऊँची उठी आँखों को एकाएक भीड़ जमा होने का कारण मिल गया। नट के सिर पर उसके दस-बारह साल की बेटी रीढ़ की हड्डी सीधी किये खड़ी है। उसके दोनों पैर आपस में लगभग जुड़े हुए हैं । कंधे पर खड़े कलाबाज तो अनेक देखे पर सिर पर खड़े होकर संतुलन साधना आज देख रहा हूँ। बीच-बीच में बिटिया हाथों से कुछ करतब भी दिखा रही है। एकाग्र, लक्ष्यकेंद्रित, दायित्व के बोध से पिता के सिर का बोझ कम करती बेटी।

रुककर फोटो खींचने की स्थिति नहीं थी, अतः मन के पटल पर भीतर के कैमरे ने दृश्य को उकेर दिया। नन्ही आयु में माता-पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नहीं अपितु उनके कंधों से भी ऊँचा उठकर रोटी कमाने का दायित्व उठाती बेटी।

वस्तुत: हर हाल में माता-पिता के साथ खड़े होनेवाली बेटियों को अब तक भी समाज से समुचित स्थान नहीं मिला है। कहा जाता है कि हर बेटी के भाग्य में माता-पिता होते हैं पर बेटी का माता-पिता होना सौभाग्य होता है। संचित पुण्य से मिलता है सौभाग्य। बचपन से माँ से सुनता आया हूँ कि पुण्य की जड़ सदा हरी रहती है। ‘सदाहरी’ का उल्लेख हुआ तो इसी शीर्षक की अपनी कविता बरबस याद हो आई-

तपता मरुस्थल / निर्वसन धरती,

सूखा कंठ / झुलसा चेहरा,

चिपचिपा बदन / जलते कदम,

दूर-दूर तक,

शुष्क और / बंजर वातावरण था,

अकस्मात / मेरी बिटिया हँस पड़ी,

अब / लबालब पहाड़ी झरने हैं,

आकंठ तृप्ति है/ कस्तूरी-सा महकता मन है

तलवों में जड़ी मखमल है/ उर्वरा हर रजकण है,

हरित वसन है / धरा पर श्रावण है..!

बेटी का माता-पिता होने का सौभाग्य हर युगल को मिले।..तथास्तु!

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments