डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सहनशक्ति बनाम दण्ड। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 143 ☆

☆ सहनशक्ति बनाम दण्ड

‘युगों -युगों से पुरुष स्त्री को उसकी सहनशीलता के लिए ही दण्डित करता आ रहा है, ‘ महादेवी जी का यह कथन कोटिश: सत्य है, जिसका प्रमाण हमें गीता के इस संदेश से भी मिलता है कि ‘अन्याय करने वाले से अधिक दोषी अन्याय सहन करने वाला होता है’, क्योंकि उसकी सहनशीलता उसे और अधिक ज़ुल्म करने को प्रोत्साहित करती है। इसलिए एक सीमा तक तो सहनशक्ति की महत्ता स्वीकार्य है, परंतु उसे आदत बना लेना कारग़र नहीं है। इसलिए मानव में विरोध व प्रतिकार करने का सामर्थ्य होना आवश्यक है। वास्तव में वह व्यक्ति मृत के समान है, जो ग़लत बात को ग़लत ठहरा कर विरोध नहीं जताता। इसके प्रमुखत: दो कारण हो सकते हैं– आत्मविश्वास की कमी और असीम सहनशीलता। यह दोनों स्थितियां ही भयावह और मानव के लिए घातक हैं। आत्मविश्वास से विहीन मानव का जीवन पशु-तुल्य है, क्योंकि जो आत्मसम्मान की रक्षा नहीं कर सकता; वह परिवार, समाज व देश के लिए क्या करेगा? वह तो धरती पर बोझ है; न उसकी घर-परिवार में इज़्ज़त होती है, न ही समाज में उसे अहमियत प्राप्त होती है। अत्यधिक सहनशीलता के कारण वह शत्रु अर्थात् प्रतिपक्ष के हौसले बुलंद करता है। परिणामत: समाज में आलसी व कायर लोगों की संख्या में इज़ाफा होने लगता है। प्राय: ऐसे लोग संवेदनहीन होते हैं और उनमें साहस व पुरुषत्व का अभाव होता है।

नारी को सदैव दोयम दर्जे का प्राणी स्वीकारा जाता है, क्योंकि उसमें अपना पक्ष रखने का साहस नहीं होता और वह शांत भाव से समझौता करने में विश्वास रखती है। इसके पीछे कारण कुछ भी रहे हों; पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक या उसका समर्पण भाव– सभी नारी को उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देते हैं, जहां वह निरंतर ज़ुल्मों की शिकार होती रहती है। पुरुष दंभ के सम्मुख वह प्रतिकार व विरोध में अपनी आवाज़ नहीं उठा सकती। इस प्रकार पुरुष उस पर हावी होता जाता है और समझ बैठता है कि वह पराश्रिता है; उसमें साहस व आत्म-विश्वास की कमी है। सो! वह उसके साथ मनचाहा व्यवहार करने को स्वतंत्र है। इस प्रकार यह सिलसिला चल निकलता है। अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना उसके गले के हार अर्थात् विवशता बन जाते हैं और उसके जीने का मक़सद व उपादान बन जाते हैं, जिसे वह नियति स्वीकार अपना जीवन बसर करती रहती है।

यदि हम उक्त तथ्य पर दृष्टिपात करें, तो नियति व स्वीकार्यता-बोध मात्र हमारी कल्पना है, जिसे हम सहजता व स्वेच्छा से अपना लेते हैं। यदि व्यक्ति प्रारंभ से ही ग़लत बात का प्रतिरोध करता है और अपने कर्म को अंजाम देने से पहले सोच-विचार करता है, उसके हर पहलू पर दृष्टिपात करता है– शत्रु के बुलंद हौसलों पर ब्रेक लग जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं, 2007 में प्रकाशित स्वरचित काव्य-संग्रह की अंतिम कविता की पंक्तियां– ‘बहुत ज़ुल्म कर चुके/ अनगिनत बंधनों में बाँध चुके/ मुझ में साहस ‘औ’ आत्म- विश्वास है इतना/ छू सकती हूं मैं/ आकाश की बुलंदियां।’ जी हाँ! यह संदेश है नारी जाति के लिए कि वह सशक्त, सक्षम व समर्थ है। वह आगामी आपदाओं का सामना कर सकती है। परंतु वह पिता, पुत्र व पति के बंधनों में जकड़ी, ज़ुल्मों को मौन रहकर सहन करती रही, क्योंकि उसने अंतर्मन में संचित शक्तियों को पहचाना नहीं था। परंतु अब वह स्वयं को पहचान चुकी है और आकाश की बुलंदियों को छूने में समर्थ है। आज की नारी ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो/ आसमान को’ में झलकता है उसका अदम्य साहस व अटूट विश्वास, जिसके सहारे वह हर कठिन कार्य को कर गुज़रती है और ऐलान करती है कि ‘असंभव शब्द का उसके शब्दकोश में स्थान है ही नहीं; यह शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में पाया जाता है।’

परंतु 21वीं सदी में भी महिलाओं की दशा अत्यंत शोचनीय व दयनीय है। वे आज भी पिता, पति व पुत्र द्वारा प्रताड़ित होती है, क्योंकि तीनों का प्रारंभ ‘प’ से होता है। सो! वे उनके अंकुश से आजीवन मुक्त नहीं हो पाती। घरेलू हिंसा, अपनों द्वारा उसकी अस्मिता पर प्रहार, फ़िरौती, दुष्कर्म, तेज़ाब कांड व हत्या के सुरसा की भांति बढ़ते हादसे उनकी सहनशक्ति के ही दुष्परिणाम हैं। यदि बुराई को प्रारंभ में ही दबाकर समूल नष्ट कर दिया जाता तो परिदृश्य कुछ और ही होता। महिलाएं पहले भी दलित थीं, आज भी हैं और कल भी रहेंगी। उनके अतीत, वर्तमान व भविष्य में कोई परिवर्तन संभव नहीं हो सकता; जब तक वे साहस जुटाकर ज़ुल्म करने वालों का सामना नहीं करेंगी।

वैसे यह नियम बच्चों, युवाओं व वृद्धों सब पर लागू होता है। उन्हें आगामी आपदाओं, विषम व असामान्य परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए, क्योंकि हौसलों के सम्मुख कोई भी टिक नहीं सकता। ‘लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती/ कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ सोहनलाल द्विवेदी जी इस कविता के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि यदि आप तूफ़ान से डर कर व लहरों के उफ़ान को देख कर अपनी नौका को बीच मंझधार नहीं ले जाओगे तो नौका कैसे पार उतर पाएगी? संघर्ष रूपी अग्नि में तप कर ही सोना कुंदन बनता है। इसलिए कठिन परिस्थितियों के सम्मुख कभी भी घुटने नहीं टेकने चाहिएं तथा मैदान-ए-जंग में मन में इस भाव को प्रबल रखने की दरक़ार है कि ‘तुम कर सकते हो।’ यदि निश्चय दृढ़ हो, हौसले बुलंद हों, दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं। नैपोलियन बोनापार्ट भी यही कहते थे कि असंभव शब्द मूर्खों के शब्द कोश में होता है। इस नकारात्मक भाव को अपने ज़हन में प्रविष्ट न होने दें –’जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि तथा नज़रें बदलते ही नज़ारे बदल जाते हैं और नज़रिया बदलते ज़िंदगी।’ यदि नारी यह संकल्प कर ले कि वह अकारण प्रताड़ना सहन नहीं करेगी और उसका साहसपूर्वक विरोध करेगी, ‘तो क्या’ और अब मैं तुम्हें दिखाऊँगी कि ‘मैं क्या कर सकती हूं।’ उस स्थिति में पुरुष भयभीत हो जायेगा और अपने मिथ्या सम्मान की रक्षा हेतु मर्दांनगी नहीं दिखायेगा। धीरे-धीरे दु:ख भरे दिन बीत जायेंगे व खुशियों की भोर होगी, जहाँ समन्वय, सामंजस्य ही नहीं; समरसता भी होगी और ज़िंदगी रूपी गाड़ी के दोनों पहिए समान गति से दौड़ेंगे। 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

14 जुलाई 2022.

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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