प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “जग तो है मेला …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 92 ☆ “जग तो है मेला…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
अकेला भी आदमी जीता तो है संसार में
जिंदगी पर काटनी पड़ती सदा दो चार में।
कटके दुनियाँ से कहीं कटती नहीं है जिन्दगी
सुख कहीं मिलता तो मिलता है वो सबके प्यार में।
लोभ में औ’ स्वार्थ में खुद को समेटे आदमी
ऐंठ करके समझता है सुख है बस अधिकार में।
पर वहाँ तो खोखलापन और बस अलगाव है
सुख तो बसता प्रेम के रिश्तों भरे परिवार में।
भुलाने की लाख कोई कोशिश करे पर आप ही
याद आते अपने हर एक पर्व औ’ त्यौहार में।
जहां होते चार बर्तन, खनकते भी हैं कभी
सबकी रुचियाँ-सोच होते हैं अलग घर-बार में।
मन में जो भी पाल लेते मैल, वे घुटते हैं पर
क्योंकि कोई भाव कब स्थिर रहे बाजार में।
जो जहां हो खुश रहें सब, हरे हों, फूले फले
समय पर मिलते रहें क्या रखा है तकरार में।
कमाई कोई किसी की छीन तो लेता नहीं
खुशियाँ फलती फूलती हैं प्रेम के व्यवहार में।
चर दिन की जिंदगी है कुछ समय का साथ है
एक दिन खो जाना सबकों एक घने अंधियार में।
है समझदारी यही सबको निभा, सबसे निभें
जग तो मेला है जो उठ जाता घड़ी दो-चार में।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈