श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 149 ☆ अतिलोभात्विनश्यति – 1 ?

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।

दैवासुरसम्पद्विभागयोग का वर्णन करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता के 16वें अध्याय के 21वें श्लोक में यह योगेश्वर का उवाच है। भावार्थ है कि  काम, क्रोध तथा लोभ आत्मनाश कर नर्क में ढकेलने वाले तीन द्वार हैं। अतः इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए।

इनमें से लोभ के विषय में आज विचार करेंगे। विचार करो कि पेट तो भर गया है पर स्वादवश जिह्वा ‘थोड़ा और’, ‘थोड़ा और’ की रट लगाए बैठी है। पेट में जगह ना होने पर भी भोजन ठूँसने का जो परिणाम होता है, उससे लोभ को सरलता से समझा जा सकता है।

लोलुपता, लालच या अधिकाधिक लाभ लेने की वृत्ति धन, प्रसिद्धि, रूप आदि हर क्षेत्र में लागू है। आदमी की आवश्यकताएँ तो मुट्ठी भर हैं पर पर उसकी लोलुपता असीम है।

आवश्यकता और लोलुपता का एक पहलू यह है कि तुम अपने में फ्लैट में आराम से रह रहे हो।  800 स्क्वायर फीट का यह फ्लैट तुम्हारी आवश्यकता के अनुरूप है। इससे अधिक स्पेस नहीं चाहिए तुम्हें पर लोलुपता का आलम यह कि तुम किसी और के लिए कोई स्पेस छोड़ना ही नहीं चाहते। मन के एक कोने में तो बिल्डिंग के सारे फ्लैट अपने नाम कर लेने का लोभ दबा पड़ा है। ध्यान देना कि यह ‘तुम’ केवल तुम नहीं हो, इसमें ‘मैं’, ‘हम’ सभी समाहित हैं।

लोभ ऐसा राक्षस है जिसका पेट कभी नहीं भरता। स्मृति में एक दृष्टांत कौंध रहा है। किसी नगर में एक अत्यंत लोभी व्यक्ति रहा करता था। उसके पास आवश्यकता से अधिक संचय हो चुका था पर तृष्णा थी कि मिटती ही न थी।  नित और अधिक धन कमाने की वासना मन में जन्मती और प्रति क्षण अधिक संचय के नये-नये तरीके खोजा करता। इसी उधेड़-बुन में एक दिन वह घोड़े पर सवार होकर जंगल से गुज़र रहा था। विश्राम के लिए एक घने पेड़ के नीचे रुका। घोड़ा घास चरने में लग गया और लोभी विश्राम के बजाय धन बढ़ाने की सोच में। तभी किसीके स्वर ने उसे बुरी तरह से चौंका दिया। स्वर पूछ रहा था- ‘क्या सोच रहे हो?’ घबराए लोभी ने यहाँ- वहाँ देखा तो कोई नहीं था। फिर समझ में आया कि वह वृक्ष ही उस से संवाद कर रहा था। वृक्ष बोला, ‘यदि रातों-रात बहुत अधिक धन पाना चाहते हो तो सुनो। मेरी याने इस पेड़ की जड़ के पास सात कलश गड़े हुए हैं। इनमें से छह औंधे मुँह गड़े हैं जबकि सातवाँ सीधा गड़ा हुआ है। छह कलशों में ऊपर तक सोना भरा है जबकि सातवाँ अभी आधा ही भरा है। यदि तुम सातवाँ कलश सोने से पूरा भर दो तो सारे कलश तुम्हारे हो जाएँगे। हाँ, ध्यान रहे कि यदि तुम कलश नहीं भर सके तो तुम अपने डाले सोने से हाथ धो बैठोगे क्योंकि इस कलश के पेट में जाने के बाद सोना वापस नहीं आता।’

लोभी खुशी से उछल पड़ा। घोड़ा दौड़ाता घर पहुँचा। पत्नी को सारा किस्सा सुनाया। फिर घर में रखा सारा सोना एक बड़ी पोटली में बांधकर जंगल ले आया। उसके पास बहुत सोना था। लोभी को विश्वास था कि इतने सोने से एक नहीं बल्कि दो कलश भी भर सकते हैं। थोड़ी-सी खुदाई के बाद ही उसे एक चमकदार कलश दिखाई देने लगा। घर से लाया सोना थोड़ा-थोड़ा कर उसमें उँड़ेलने लगा। हर बार सोना डालने के बाद झाँक कर देखने की कोशिश करता कि शायद इस बार भर गया हो। अंतत: कलश ने सारा सोना गड़प लिया पर भरा नहीं। लोभी रोने लगा। पेड़ से पूछा, ‘ इतना अधिक सोना था फिर भी यह कलश भरा क्यों नहीं?’  पेड़ ज़ोर- ज़ोर से हँस पड़ा और कहा,’नादान, यह लोभ का कलश है, जो कभी नहीं भरता।’

सच है, लोभ का कलश कभी नहीं भरता। सुभाषित में उतरा सनातन दर्शन कहता है,

लोभ मूलानि पापानि संकटानि तथैव च।

लोभातप्रवर्तते वैरम् अतिलोभात्विनश्यति।

लोभ विनाश का कारण बनता है। संभव हुआ तो आगे के आलेखों में ‘अतिलोभात्विनश्यति’ की विवेचना जारी रखेंगे।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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