आलेख – कोई न हारे जिंदगी
गाहे बगाहे युवा छात्र छात्राओ की आत्म हत्या के मामले प्रकाश में आते हैं. ये घटनायें प्रत्येक शहरी के लिये चिंता की बात हैं. वे क्या कारण बन जाते हैं जब अपने परिवार से दूर, पढ़ने के उद्देश्य से शहर आये बच्चे अपना मूल उद्देश्य, परिवार और समाज का प्यार भूलकर मृत्यु को चुन लेते हैं? कभी कोई किसान जिंदगी की दौड़ में लड़खड़ा कर लटक जाता है, तो कभी प्यार में ठुकराये पति पत्नी, प्रेमी प्रेमिका किसी झील में छलांग लगा देते हैं. मौत को जिंदगी से बेहतर मान बैठने की गलती दूसरे दिन के अखबार को अवसाद से भर देती है.
समाज और शहर की जिम्मेदारी इतनी तो बनती है कि हम एक ऐसा खुशनुमा माहौल रच सकें जहाँ सभी सकारतमकता से जीने को प्रेरित हों. जीवन के प्रति ऐसे पलायन वादी दृष्टिकोण रखने लगे लोगों के संगी साथियों के रूप में हममें से कोई न कोई कालेज, होस्टल, घर या कार्य स्थल पर अवश्य उनके साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष हमेशा होता है, जो दुर्घटना के उपरांत साक्ष्य बन कर पोलिस को जानकारी देता है. किंतु उसकी उदासीनता आत्ममुग्धता, पड़ोसी का मन नहीं पढ़ पाती. हम यंत्रवत कैमरे भर नहीं हैं. हम सबकी, प्रत्येक शहरी की व्यक्तिगत जबाबदेही है कि अपने परिवेश में किंचित सूक्ष्म नजर रखें कि किसी को हमसे किसी तरह की मदद, किसी आत्मीय भाव, कुछ समय तो नहीं चाहिये?
प्रगति के लिये, अपने आप में खोये हुये, नम्बरों और घड़ी की सुई के साथ दौड़ लगाते हम कहीं ऐसे प्रगतिशील शहरी तो नहीं बन रहे कि हमारे आस पास कोई मृत्यु को जिंदगी से बेहतर मान रहा है और हम इससे बेखबर भाग रहे हैं. नये घर, नये वाहन, नई नौकरी के इर्द गिर्द यह यंत्रवत दौड़ ही शहर की अच्छी सिटिजनशिप के लिये पर्याप्त नही है. हमारा शहर वह सामाजिक समूह बने जहाँ सामूहिक जागृत चेतना हो, सामूहिक उत्सवी माहौल हो, सामूहिक प्रगति हो. कोई जिंदगी से हताश न हो. इसके लिये किसी संस्था, किसी सरकारी कार्यक्रम की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी महज हममें से हरेक के थोड़े से चैतन्य व्यवहार की आवश्यकता है.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈