श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की अगली कड़ी ।)
☆ व्यंग्य # 42 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
सत्र याने सेशन जो पोस्ट का भी होता है और प्रशिक्षण कार्यक्रम का भी. इस बीच भी एक अल्पकालीन टी ब्रेक होता है जो भागार्थियों याने पार्टिसिपेंट्स को अगली क्लास के लिये ऊर्जावान बनाता है. होमोजीनियस बैच जल्दी घुल मिल जाते हैं क्योंकि उनका माईंडसेट, आयु वर्ग, अनुभव और लक्ष्य एक सा रहता है. भले ही ये लोग आगे भविष्य में पदों की अंतिम पायदान पर एक दूसरे से कट थ्रोट कंपटीशन करें पर इन सब का वर्तमान लगभग एक सा रहता है, सपने एक से रहते हैं प्लानिंग एक सी रहती है और रनिंग ट्रेक भी काफी आगे तक एक सा ही रहता है. यही बैच के साथ बहुत सी बातों का एक सा होना बाद में, कहीं आगे बढ़ जाने की संतुष्टि या पीछे रह जाने की कुंठा का जनक भी होता है. पर शुरुआत की घनिष्ठता का स्वाद ही अलग होता है जो स्कूल और कॉलेज के क्लासमेट जैसा ही अपनेपन लिए रहती है. एक ही बैच से प्रमोट हुये लोग बाद में भी विभिन्न प्रशिक्षण केंद्रों में टकराते रहते हैं पर यह टकराव ईगो का नहीं, सहज मित्रता का होता है. ये अंतरंगता, व्यक्ति से आगे बढ़कर परिवार को भी समेट लेती है जो विभिन्न पारिवारिक और सांस्कृतिक आयोजन में भी दृष्टिगोचर होती रहती है. इस सानिध्य और नज़दीकियों को उसी तरह सहज रूप से देखा जाना चाहिए जैसा विदेशों में, हमवतनों का साथ मिलने पर जनित घनिष्ठता में पाया जाता है.
दूसरे प्रशिक्षणार्थी विषम समूह के होते हैं जो विभिन्न तरह के असाइनमेंट संबंधित या कार्यक्रम संबंधित सत्र अटेंड करने आते हैं. इस बैच के आयुवर्ग की रेंज बड़ी होती है जो कभी कभी टीवी सीरियल्स के पात्रों के समान भी बन जाती है जहाँ अंकल और भतीजे एक साथ, एक ही क्लास में पढ़ते हैं. इनमें आयु, सेवाकाल, माइंडसेट, और प्रशिक्षण को सीरियसली लेने के मापदंड अलग अलग होते हैं. हर व्यक्ति अपने आपको वो दिखाने की कोशिश करता है जो अक्सर वो होता नहीं है और दूसरी तरफ पर्देदारी भी नज़र आती है. इनका मानसिक तौर पर एक होना, तराजू पर मेंढकों को तौलने के समान हो जाता है पर ये मेंढक भी मधुशाला में हिट आर्केस्ट्रा के वादक बन जाते हैं. इनकी महफिलों की तनातनी भी अगर हुई भी तो अगले दिन के लंच तक खत्म हो जाती है क्योंकि तलबगार तो सीमित ही रहते हैं जिनकी सहभागिता शाम को ज़रूरी बन जाती है. इनके पास खुद के किस्से भी इतने रहते हैं कि सभासदों को इनकी संगत की आदत पड़ जाती है. जब कोई एक, महफिलों में अपने बॉस की बधिया उधेड़ रहा होता है तो श्रोताओ को उसमें अपना बॉस नज़र आने लगता है और “ताल से ताल मिला” गाना चलने लगता है.
अब तो वाट्सएप का दौर है वरना प्रशिक्षण कार्यक्रमों में व्यक्ति कुछ पाये या न पाये, उसके पास जोक्स का स्टाक जरूर बढ़ जाता था. कुछ कौशल सुनाने वालों का भी रहता था कि इनकी चौपाल हमेशा खिलखिलाहटों से गुलज़ार रहती थीं. अपनी दिलकश स्टाइल में हर तरह के जोक्स सुनाने वाले ये कलाकार धीरे धीरे विशेष सम्मान के पात्र बन जाते थे और इनके साथ कभी कभी एक बार भी प्रशिक्षण पाने वाले हमेशा इनको याद रखते थे.
प्रारंभिक दो सत्र के बाद एक घंटे का लंच अवर होता था जो पूरे बैच को 1947 के समान दो भाग में विभाजित कर देता था. पर ये विभाजन धर्म के आधार पर नहीं बल्कि आहार के आधार पर होता था सामिष और निरामिष याने वेज़ और नॉन वेज़. पहले ये सुविधा रात्रिकालीन होती थी पर केंद्र में कुछ अनुशासन भंग की घटनाओं के कारण मध्याह्न में उपलब्ध कराई जाने लगी. पर यह बात ध्यान से हट गई कि नॉनवेज आहार के बाद नींद के झोंके अधिक तेज़ गति से आते हैं.
पोस्ट लंच सेशन सबसे खतरनाक सेशन होता है जब सुनाने वालोँ और सुनने वालों के बीच ज्ञान की देवी सरस्वती से ज्यादा निद्रा देवी प्रभावी होती हैं. ये सुनाने वालों के कौशल की भी परीक्षा होती है जब उन्हेँ सुनाने के साथ साथ जगाने वालों का दायित्व भी वहन करना पड़ता है. वैसे यह भी एक शोध का विषय हो सकता है कि सुनाने वालों को क्या नींद परेशान नहीं करती. जितनी अच्छी नींद का आना इस सत्र में पाया जाता है, रिटायरमेंट के बाद व्यक्ति बस वैसी ही नींद की चाहत करता है. जब आपकी यात्रा में लेटने की सुविधा न हो तब भी यही नींद कमबख्त, अपना रोद्र रूप दिखाती है. प्रशिक्षक की निष्ठुरता यहीं पर दिखाईवान होती है. “अरे सर, कौन सा इनको याद रहता है जो आप इनकी अर्धनिद्रा में सुनाने की कोशिश करते हैं”. इनको तो आगे जाकर सब भूल ही जाना है. प्रशिक्षु सब भूल जाता है पर ये पोस्ट लंच सेशन हमेशा उसकी यादों में जागते रहते हैं. कुछ महात्मा, फोटोसन ग्लास पहन कर भी क्लास अटैंड करके नींद का मजा लेना शुरु करते थे पर खर्राटे सब भेद खोल देते हैं. अनुभवी पढ़ाने वाले गर्दन के एंगल और शरीर के हिलने डुलने से भी समझ जाते हैं कि विद्यार्थी, ज्ञानार्जन की उपेक्षा कर निद्रावस्था की ओर बढ़ने वाला है तो वे उसे आगे बढ़ने से किसी न किसी तरह रोक ही लेते हैं.
प्रशिक्षण सत्र जारी रहेगा, अतःपढ़कर सोने से पहले लाईक और/या कमेंट्स करना ज़रूरी है.
क्रमशः…
© अरुण श्रीवास्तव
संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈