आलेख – स्वतंत्रता बाद हिंदी की प्रगति
आजादी के बाद विदेशो में हिंदी की प्रगति पर संतोष करना बुरा नहीं है , आज भारतीय डायसपोरा सम्पूर्ण विश्व में फैला मिलता है , मैं अरब देशों से अमेरिका तक बच्चों के साथ घूम आया , जानते बूझते कोशिश कर अंग्रेजी से बचता रहा और मेरा काम चलता चला गया । यद्यपि साहित्यिक हिंदी में बहुत काम जरूरी लगता है। देश के भीतर हिंदी बैल्ट में स्थिति अच्छी है , अन्य क्षेत्रों में हिंदी को लेकर राजनीति हावी लगती है।
हिंदी राजभाषा या राष्ट्रभाषा के रूप में लोकप्रिय हो रही है यह विचारणीय है।स्पष्ट रूप से राष्ट्र भाषा के स्वरूप में हिंदी बेहतर है , राजभाषा में तो गूगल अनुवाद ही सरकारी वेबसाइटो पर मिलते हैं । हिंदी की भाषागत शुद्धता के प्रति जागरूकता आवश्यक है ।
हिंदी की भाषागत शुद्धता के प्रति असावधानी को सहजता से स्वीकार करना हिंदी के व्यापक हित में प्रतीत होती है।
विधिक और प्रशासनिक भाषा के रूप में हिंदी अपनी जटिलता के साथ परिपक्व हुई है । हिंदी की तकनीकी जटिलता को उपयोगकर्ता व्यवहारिक रूप से आज भी स्वीकार नहीं कर सके हैं। आज भी न्यायिक जजमेंट को प्रमाणिक तरीके से समझने में अंग्रेजी कापी में ही आर्डर पढ़ा जाता है।
हिंदी को एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में लोकप्रिय बनाने के लिए शिक्षण और प्रशिक्षण में ध्यान दिया जाना चाहिए । सही व्याकरण के साथ तकनीकी हिंदी का उपयोग कम लोग ही करते दिखते हैं । वैश्विक स्तर पर हिंदी को व्यापक रूप से प्रतिस्थापित करने के लिए आवश्यक है कि जिस देश में प्रवासी भारतीय जा रहे हों , उस देश की भाषा , अंग्रेजी और हिन्दी में समान दक्षता तथा प्रमाणित योग्यता विकसित करने के लिए योग्यता विकसित करने के प्रयास बढ़ाएं जाएं।
हिंदी को सामाजिक न्याय की भाषा के रूप में प्रस्तुत और प्रयुक्त करने की विशेष जरूरत है। महात्मा गांधी ने हिंदी को देश की एकता के सूत्र के रूप में देखा था ।
देवनागरी में विभिन्न भारतीय भाषाओं को लिखना , कम्प्यूटर पर सहज ही स्थानीय भाषाओं व लिपियों के रूपांतरण की तकनीकी सुविधाएं स्वागत योग्य हैं । सरल हिंदी का अधिकाधिक शासकीय कार्यों और व्यवहार में उपयोग सामाजिक न्याय की वाहिका के रूप में हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाता है।
ज्यों ज्यों नई पीढ़ी का न्यायिक प्रकरणों में हिंदी भाषा में सामर्थ्य बढ़ता जायेगा , संदर्भ दस्तावेज हिंदी में सुलभ होते जायेंगे , हिंदी न्यायालयों में प्रतिस्थापित होती जायेगी ।
आवश्यक है कि ऐसा वातावरण बने कि मौलिक सोच तथा कार्य ही हिंदी में हो , अनूदित साहित्य या दांडिक प्रावधान हिंदी को उसका मौलिक स्थान नहीं दिला सकते। हिंदी की बोलियों या प्रादेशिक भाषाओं का समानांतर विकास हिंदी के व्यापक संवर्धन में सहायक ही सिद्ध होगा । बुनियादी शिक्षा में त्रिभाषा फार्मूला किंचित सफल ही सिद्ध हुआ है । किसी भी अन्य भाषा या बोली की स्वतंत्रता हिंदी के विकास को प्रतिरोधित नहीं कर सकती।
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈