श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 136 ☆

☆ ‌ हिंदी भक्ति काल की ज्ञानाश्रयी शाखा के अनूठे कवि कबीर ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

कबीर साहब का जन्म तत्कालीन काशी क्षेत्र वर्तमान में वाराणसी के लहरतारा नामक स्थान में सन् 1398 में हुआ। जन्म के पश्चात् इन्हें लावारिस हालत में तालाब के किनारे पाया गया था। इनका लालन-पालन नीरू और नीमा नामक जुलाहे दंपति ने किया था। वह समय भारत की गुलामी का था।

देश पर मुग़ल साम्राज्य था। तथा हिंदू धर्म अपने पराभव काल में था। यह वह समय था जब  था हिंदू सभ्यता तथा सांस्कृतिक विरासत के प्रतीकों को तोडा गया, उनकी संपत्ति को लूटा गया तथा पददलित किया गया। लेकिन उसी समय देश के संतों महात्माओं ने धर्म और संस्कृति की मर्यादा की रक्षा के लिए सांस्कृतिक जन चेतना जागृत करने के लिए कलम को हथियार बना कर लोगों के भीतर एक चेतना पैदा की। एक तरफ जहां भक्तिकालीन कवियों ने लोगों में भक्तिभाव जगाया। सगुण भक्ति की काव्य धारा प्रवाहित किया, तो वहीं पर कुछ कवियों ने निर्गुण की उपासना की। एक ओर सूरदास, कबीर दास, तुलसी दास, रविदास जैसे कवि थे तो दूसरी ओर रहीम, रसखान जैसे मुसलमान कवि जो इस्लाम केदीन को मानते हुए भी कृष्ण के भक्ति रस में खुद को आकंठ डुबा चुके थे और हृदय से परम उदार शालीनता के प्रतीक बन गए थे। तो वहीं पर कुछ दरबारी कवि भी हुए जो राजाओं महाराजाओं के अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्ति गान तक सीमित हो गए। आल्हा तथा रासों विधा की रचनाएं दी, जिसमें जगह जगह अतिशयोक्तिपूर्ण प्रस्तुति है। लेकिन भक्तिकालीन कवियों में कबीर की रचनाओं में खरापन दिखाई देता है, उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक रूढ़ियों पर जमकर प्रहार किया है।

समाज के अंतिम पायदान पर खड़े कबीर साहब को ना तो कुछ पाने की अभिलाषा थी ना कुछ खोने का भय। इस लिए जो भी लिखा निर्भय हो कर लिखा। इनकी रचना की मूल विधाएं साखी, सबद, रमैनी तथा दोहे थे। भाषा शैली पंचमेल खिचड़ी थी। इनकी रचनाओं में हिंदी भाषा के अपभ्रंश, पंजाबी गुरुमुखी तथा स्थानीय भाषा के शब्द दृष्टिगोचर होते हैं।  उनकी लेखन शैली में उलटबांसी, अध्यात्म चिंतन, कूट कूट कर भरा हुआ है। उनकी जीवनशैली खांटी फक्कड पन भरी थी, तथा वे घुमक्कड़ प्रकृति के थे, जिसका प्रभाव उनके लेखन की भाषा शैली में स्पष्ट दिखाता है।

उनके लेखन का सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार का अंदाज जहां रूढिवादियों को तिलमिला देता है वहीं समाज के पुरोधाओं को विचार करने के लिए विवश भी करता है। उनके प्रहार के कुछ उदाहरण प्रस्तुत है।–

पाहन पूजे हरि मिले, मैं तो पूजूं पहार

याते चाकी भली जो पीस खाए संसार

तथा  कलयुगी गुरु शिष्य परंपरा की विद्रूपताओं पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि—-

गुरू लोभी सिष लालची, दोनों खेले दाव।

दोनों बूङे बापुरे, चढ़ि पाथर की नाव॥

तो वहीं पर गुरु सत्ता के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

मानव जीवन में गुरु की महत्ता  पर प्रकाश डालते हुए लिखा कि—–

गुरु कुंभार शिष्य कुंभ है, घड़ि घड़ि काढ़े खोट।

भीतर हाथ पसार के, बाहर मारे चोट।

अर्थात् गुरु व्यक्ति भीतर व्यक्तित्व गढ़ता है।उनकी रचनाओं में समाज को दिशा दिखाने वाले संदेश प्रतिध्वनित होते हैं। उनका भी उदाहरण देखें——-

दुर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय।

मरे बैल की चाम सो लोह भसम हो जाए।।           

अथवा

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।

वह मूर्ति पूजा के विरोधी थे, उनका दृष्टि कोण उदारवादी तथा विस्तृत था वह संकुचित दृष्टि कोण के विरुद्ध थे। वह माला नहीं मन फेरने की बात करते थे। तथा दिखावे और बाह्याडंबर के विरुद्ध थे, लेकिन धर्म कर्म के विरोधी नहीं थे।

जप माला छापा तिलक, सरै ना एकौ काम।

मन-काँचे नाचै वृथा, सांचे रांचे राम।

कबीर माला काठ की, कहीं समझावे तोही।

मन ना फिरावे आपना, कहा फिरावे मोहि।

मूड़ मुड़ाए हरि मिलै तौ सब कोई लेइ मुड़ाय ।

बार – बार के मूड़ते , भेड़ न बैकुंठ जाय ।

तो वहीं पर अध्यात्म का संदेश देते हुए कहते हैं कि– 

संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे । 

भ्रम की टाटी सबै उड़ानी , माया रहै न बाँधी ॥ 

उन्होंने अध्यात्म की नई परिभाषा गढ़ते हुए ईश्वर के घर की दूरी नापने की आध्यात्मिक नई परिभाषा देते हुए सावधानी का संदेश दिया।

कबिरा हरि घर दूर है, जैसे पेड़ खजूर।

चढै सो चाखे प्रेम रस, गिरै सो चकनाचूर।।

तो वहीं पर और गहराई में उतर कर लिखते हैं कि

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।

तो वहीं खोजते खोजते खुद के खो जाने की बात करते हैं।

हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।

बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥

अर्थात् भक्ति मार्ग पर अपने अस्तित्व को मिटाने की बात करते हैं। प्रकारांतर से कबीर साहब के मत का समर्थन रविदास जी की रचना में भी दृष्टि गोचर होता है।

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी में भी देखा जा सकता है। अर्थात् चंदन के संपर्क में आकर पानी सुवासित हो जाता है और चंदन घिस कर माथे का तिलक बन जाता है। अर्थात् आत्मा और परमात्मा का मिलन उपयोगी बन जाता है आत्मा के लिए ।

वहीं पर गोस्वामी तुलसीदास जी की रचनाएं भी उनके मत की पुष्टि करते जान पड़ते हैं जैसे—-

गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई ।

जौ बिरंचि संकर सम होई ।।

 तो वहीं पर—–

ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशी।।

श्री गुरु पद नख मनि गन ज्योति । सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती।  

तो वहीं पर  तुलसी दास जी के दोहे प्रकारांतर से वहीं संदेश देते प्रतीत होते हैं जैसे—–

तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुँ ओर।

बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर ।

लेकिन कबीर के राम तुलसी के सगुण रूपी राम नहीं है, वे तो राम के रूप को अनुभूति की विषय वस्तु बना देते हैं तथा राम को अनुभवगम्य बताते हुए कहते हैं कि

जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।

पुहुप बास तैं पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥

तो वहीं पर अपनी जन्मभूमि की गरिमा बढ़ाते हुए उसे मोक्ष भूमि कहते हुए लिखते हैं कि—–

जौ काशी तन तजै कबीरा ,तो रामै कौन निहोटा।

और अपने सत्करमों के परीक्षण हेतु मगहर में जा कर अपना शरीर का त्याग कर अपनी आत्मसत्ता को पूर्ण में एकाकार कर उसी में खो जाते हैं।

वहीं गोस्वामी तुलसीदास जी ने  भी कबीर के मत की पुष्टि करते हुए लिखा—–

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।

कर बिनु करम करइ बिधि नाना।। 

से की है तो आगे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं——

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा

गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।

अर्थात् सगुण और निर्गुण में कोई भेद नहीं है, एक शरीर है तो दूसरी आत्मा। सगुण जहां शरीर है ‌वहीं निर्गुण निराकार आत्मचेतन सत्ता। शरीर के बिना आत्मचेतना विलुप्त है तो शरीर के भीतर आत्मचेतना प्रकट हो गतिशील रूप में दृश्य मान हो जाती है। इस प्रकार कबीर साहित्य हमें यथार्थ दर्शन के साथ मतैक्यता के भी दर्शन कराता है।

 © सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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