डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘उनकी अध्यक्षता में’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 155 ☆

☆ व्यंग्य – उनकी अध्यक्षता में

मैं उस संस्था में नया-नया ही दाखिल हुआ था, इसलिए उसके सदस्यों, विशेषकर उसके दिग्गजों को, बहुत कम जानता था। सभाएँ भी बहुत कम हुई थीं।

एक दिन एक सभा बुलायी गयी। सचिव को तो मैं नहीं जानता था, लेकिन अध्यक्ष महोदय से वाकिफ था। वे खासे संपन्न आदमी हैं और नगर की पंद्रह बीस संस्थाओं के अध्यक्ष हैं। सचिव महोदय ने घोषणा की कि सरकार सामाजिक कार्यक्रमों के लिए काफी पैसा दे रही है, इसलिए संस्था को कोई सामाजिक कार्यक्रम करना चाहिए। प्रस्ताव आये। अंत में निश्चय हुआ कि नगर के कुछ मुहल्लों का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण किया जाए और उसके आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाएँ। सर्वेक्षण-समिति के लिए अध्यक्ष की खोज होने लगी। तभी मुझसे थोड़ी दूर बैठे उन खादीधारी बुज़ुर्ग ने अपने मुँह से दाँत-खोदनी निकाली और लापरवाही से सचिव की ओर अपना हाथ बढ़ा कर कहा, ‘मेरा नाम लिख लीजिए।’

सभा में तालियाँ गूँज उठीं। सचिव के चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी। वे बोले, ‘बंशी भाई ने एक बार फिर हमारी समस्या हल कर दी। बंशी भाई को तो ऐसे कार्यक्रमों का स्थायी अध्यक्ष बना देना चाहिए।’

नाम सुनकर मुझे याद आ गया। यह बंशी भाई थे। राजनैतिक उठापटक और गोटी बैठाने में अक्सर उनका नाम सुनने में आता था। वे नगर के पुराने खिलाड़ी थे। सचिव की बात सुनकर वे फिर निर्विकार भाव से दाँत खोदने में व्यस्त हो गये थे।

सचिव उनसे बोले, ‘बंशी भाई, आप खुद ही अपनी टीम चुन लीजिए।’

बंशी भाई धीरे-धीरे कुर्सी से उठ खड़े हुए। उपस्थित सदस्यों पर नज़र डालकर उन्होंने तीन नाम बोले, फिर पता नहीं कैसे उनकी नज़र मेरे चेहरे पर अटक गयी। मेरी तरफ उँगली उठा कर बोले, ‘चौथा नाम इनका लिख लीजिए।’ बंशी भाई ज़रूर आदमी के ग़ज़ब के पारखी थे क्योंकि जो चार आदमी उन्होंने चुने थे वे चारों ही सीधे-साधे, अनुभवहीन, और व्यवहारिक ज्ञान में कोरे थे।

सभा समाप्त होने पर बंशी भाई ने हमें रोक लिया, बोले, ‘शाम को अगर घर पर पधार सकें तो हम काम की रूपरेखा बना लेंगे।’

जब शाम को हम उनके बंगले पर पहुँचे तब वे लॉन में आराम कुर्सी पर पूरे आराम की मुद्रा में पसरे थे। उन्होंने हमें प्रेम से चाय पिलायी और हमारे बीच काम का वितरण कर दिया। काम करने का तरीका भी बतला दिया। फिर बोले, ‘जल्दी काम निपटा दीजिए। मुझे आप लोगों की योग्यता पर पूरा भरोसा है।’

हम चारों बोदे तो थे ही, प्राणपण से काम में जुट गये। मेरे साथ जो चोपड़ा और स्वर्णकार नाम के साथी थे वे तो इस मिशन के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो गये। बार-बार गद्गद होकर कहते थे, ‘बहुत मीनिंगफुल काम है। इसके बहुत उपयोगी नतीजे निकलेंगे।’

वे बार-बार निर्देशन के लिए बंशी भाई के पास दौड़ते थे, लेकिन बंशी भाई ने पहले दिन के बाद कभी उन्हें दो मिनट से ज्यादा समय नहीं दिया। हर बार कह देते, ‘अरे यार, तुम लोग समझदार हो, बेफिक्री से जो ठीक समझो करो।’ एकाध मिनट बात करके वे ‘अच्छा तो फिर’ कह कर बेलिहाज उठ जाते।

चोपड़ा और स्वर्णकार भूत की तरह सवेरे से शाम तक लगे रहते। एक दिन वे निष्कर्ष निकालने के लिए एक फार्मूला ले आये थे। उसे लेकर वे फिर उत्साह में बंशी भाई के पास दौड़े गये। बंशी भाई उस दिन बड़ी रुखाई से पेश आये। बोले, ‘आप लोग समझते हैं कि मुझे एक यही काम है। मेरे जिम्मे पचासों काम हैं। आप जो ठीक समझें कीजिए। मुझे परेशान मत कीजिए।’

मर-खप कर हमने अपनी ही समझ से वह काम पूरा किया। रिपोर्ट की छपाई की अवस्था में पहुँचे तो हम फिर बंशी भाई की सेवा में पहुँचे। वे बाहर कार पर चढ़ते हुए मिले। लगता था उन्हें हम से एलर्जी हो गयी थी। माथा सिकोड़कर बोले, ‘अरे यार, तुम्हारी रिपोर्ट को पढ़ने वाला कौन है? अलमारियों में धूल खाएगी और रद्दी की टोकरी में फेंकी जाएगी। सचिव से मिलकर छपवा लो।’

रिपोर्ट छप-छपाकर तैयार हो गयी। उस पर बड़े अक्षरों में बंशी भाई का नाम छपा और छोटे अक्षरों में हम चारों का। रिपोर्ट की दो प्रतियाँ हम उन्हें दिखाने गये। अब की उन्होंने दिलचस्पी से रिपोर्ट देखी, लेकिन कवर देखते ही उनकी मुखमुद्रा बिगड़ गयी। बोले, ‘आपने मेरे नाम के नीचे भूतपूर्व विधायक और भूतपूर्व महापौर नहीं छपवाया। आपको मालूम नहीं था तो किसी से पूछ लेते। कवर फिर से छपवाइए।’ उन्होंने रिपोर्ट हमारी तरफ फेंक दी।

कवर दूसरा छपा। फिर जल्दी ही रिपोर्ट भेंट करने के लिए राज्य के एक मंत्री को आमंत्रित किया गया। बंशी भाई को मंत्री जी की बगल में स्थान मिला। मंत्री महोदय और अन्य वक्ताओं ने ऐसी महत्वपूर्ण रिपोर्ट के प्रस्तुतीकरण के लिए बंशी भाई की ज़बरदस्त प्रशंसा की। मंत्री जी ने कहा, ‘इस उम्र में बंशी भाई की निष्ठा, कार्यक्षमता और उत्साह देखकर मुझ जैसे कम उम्र लोगों को लज्जा का अनुभव होता है।’

बंशी भाई का मुख प्रसन्नता से लाल था और उनका सिर विनम्रता से झुका हुआ था। अंत में बंशी भाई का भाषण हुआ। उन्होंने कहा, ‘मेरा जीवन समाज के लिए है। समाज का मुझ पर ऋण है और उस ऋण को उतारने के लिए मैं आखरी साँस तक पीछे नहीं हटूँगा।’

उनके भाषण के बाद भयंकर तालियाँ पिटीं और हम चारों कार्यकर्ता मंच के पीछे इंतज़ाम में जुटे अवाक होकर देखते रहे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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