श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक एक विचारणीय एवं समसामयिक ही नहीं कालजयी रचना “पूछ से पूँछ तक”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 114 ☆
☆ पूछ से पूँछ तक ☆
उत्सव समाप्त की विधिवत घोषणा भी नहीं हो पायी थी कि एक बड़ा खेमा विरोध में खड़ा हो गया। उसकी समस्या थी कि उसे पर्याप्त सम्मान नहीं दिया गया, केवल एक की ही पूँछ पकड़े साहब घूमते रहे, अब क्या किया जाए, प्रकृति ने तो इसे मानव से विलुप्त कर दिया है ठीक वैसे ही जैसे डायनासौर को, पर अभी भी कुछ लोग इसका भरपूर उपयोग कर रहे हैं।
विरोधी ग्रुप ने खूब हाथ-पैर पटके पर उम्मीद की किरण दिखाई ही नहीं दे रही थी, खैर उम्मीद पर तो दुनिया कायम है वे लोग समानांतर संगठन बनाने लगे।
उनका नेता भी कोई कुटिल ही होना था क्योंकि बिना इसके न तो रामायण पूरी हुई न महाभारत सो ये क्रम कैसे रुके, अच्छा भी है ये सब होते रहने से कुछ कड़वाहट भी फैलती है जिससे मीठे की बीमारी से बचाव होता है।
जब व्यक्ति स्वान्तः सुखाय की दृष्टि धारण कर लेता है तो उसे स्वार्थी की संज्ञा समाज द्वारा दे दी जाती है।
अब प्रश्न ये उठता है कि क्या स्व + अर्थ = स्वार्थ की कसौटी क्या होनी चाहिए इसका निर्धारण कौन करेगा। सभी अपने दृष्टिकोण से सोचते हैं, तर्क देते हैं और खुद ही फैसला सुना देते हैं। स्वार्थी होना कोई बुरी बात नहीं है यदि उससे किसी का नुकसान न हो रहा हो तो।
जितना भी विकास हुआ है उसमें मनुष्य की जिज्ञासू प्रवृत्ति से कहीं ज्यादा स्वयं का हित ही समाहित रहा है। जब-जब केवल अपना हित चाहा प्रत्यक्ष रूप से तब-तब विरोध के स्वर मुखरित हुए।
यदि आपके विचारों से समाजोपयोगी कार्य हो रहे हैं तो अवश्य करें, जब तक एक जुट होकर सार्थक प्रयास नहीं होंगे तब तक स्वार्थ सिद्धि में लगे लोग इसके सही अर्थ को न समझ पायेंगे न समझा पायेंगे।
छोड़ दो तुम स्वार्थ सारे।
थाम लो नेहिल सहारे।।
बीत जायेगी ये रैना।
बात सच्ची मान प्यारे।।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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