श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 19☆

☆ भोर भई ☆

लोकश्रुति है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है। पाप की अधिकता होने पर धरती को टिकाए रखना एक दिन शेषनाग के लिए संभव नहीं होगा और प्रलय आ जाएगा। कई लोगों के मन में प्राय: यह प्रश्न उठता है कि विसंगतियों की पराकाष्ठा के इस समय में अब तक प्रलय क्यों नहीं हुआ?

इस प्रश्न का एक प्रतिनिधि उत्तर है, ‘धनाजी जगदाले जैसे संतों के कारण।’ तुरंत प्रतिप्रश्न उठेगा कि कौन है धनाजी जगदाले जिनके बारे में कभी सुना ही नहीं?

धनाजी जगदाले, उन असंख्य भारतीयों में से एक हैं जो येन केन प्रकारेण अपना उदरनिर्वाह करते हैं। 54 वर्षीय धनाजी महाराष्ट्र के सातारा ज़िला की माण तहसील के पिंगली गाँव के निवासी हैं।

‘यह सब तो ठीक है पर धनाजी संत कैसे हुआ?’ …’धैर्य रखिए और अगला घटनाक्रम भी जानिए।’

अक्टूबर 2019 में महापर्व दीपावली के दिनों में धनाजी को धन प्राप्ति का एक दैवीय अवसर प्राप्त हुआ।

हुआ यूँ कि शहर के बस अड्डे पर खड़े धनाजी के सामने संकट था अपने गाँव लौटने का। गाँव का टिकट था रु.10/- और धनाजी की जेब में बचे थे केवल 3 रुपये। एकाएक धनाजी ने जो देखा, उससे उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। बस अड्डे पर किसी के गलती से  छूट गए थैले में नोटों के बंडल थे। कुल चालीस हज़ार रुपये।

चालीस हज़ार की राशि धनाजी के लिए एक तरह से कुबेर का ख़जाना था पर कुबेर का एक अकिंचन के आगे लज्जित होना अभी बाकी था।

अकिंचन धनाजी ने सतर्क होकर आसपास के लोगों से थैले के मालिक की जानकारी टटोलने का प्रयास किया। उन्हें अधिक श्रम नहीं करना पड़ा। थोड़ी ही देर में एक व्यक्ति बदहवास-सा अपना थैला ढूँढ़ते हुए आया। मालूम पड़ा कि पत्नी के ऑपरेशन के लिए मुश्किल से जुटाए चालीस हज़ार रुपये जिस थैले में रखे थे, वह यहीं-कहीं छूट गया था। पर्याप्त जानकारी लेने के बाद धनाजी ने वह थैला उसके मूल मालिक को लौटा दिया।

आनंदाश्रु के साथ मालिक ने उसमें से एक हज़ार रुपये धनाजी को देने चाहे। विनम्रता से इनाम ठुकराते हुए धनाजी ने अनुरोध किया कि यदि वह देना ही चाहता है तो केवल सात रुपये दे ताकि दस रुपये का टिकट खरीदकर धनाजी अपने गाँव लौट सके।

प्राचीनकाल में सच्चे संत हुआ करते थे। देवताओं द्वारा इन संतों की तपस्या भंग करने के असफल प्रयासों की अनेक कथाएँ भी हैं।  इनमें एक कथा धनाजी जगदाले की अखंडित तपस्या की भी जोड़ लीजिए।…और हाँ, अब यह प्रश्न मत कीजिएगा कि अब तक प्रलय क्यों नहीं हुआ?

अपने-अपने क्षेत्र में हरेक की तपस्या अखंडित रहे!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 4 :14 बजे, 7.11.2019)
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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राजेन्द्र श्रीवास्तव

यथार्थ में प्रेरक व चिंतन को सही दिशा देने में सहायक। संत धना जी जैसी विभूतियाँ अंधेरे में एक प्रकाशपुंज की भाँति निस्वार्थ भाव से अपनी सीमाओं में रहकर भी अनंत आकाश तक को देदीप्यमान कर रही हैं।

Vijaya

वास्सॲप तथा नकारार्थक सोच वाले लोग सिर्फ नकारार्थक बातों पर ध्यान केंद्रित करते हैं उन्हें धनाजी, बाबा आमटे, पद्मीनी स्टंप, डाॅ. कस्बेकर, इंदूमती पटवर्धन जैसे करोड़ों आम ,कर्मवीर जो मानव जाती ही नहीं बल्की पशु पक्षी योंको लिए भी खास काम करते हैं दिखाई नहीं देते। जो धर्म को /मानव धर्म को नष्ट नहीं होने देते।
तभी तो दुनिया चल रही हैं एसे मैं मानती हूं।संजय जी प्रणाम
???
विजया टेकसिंगानी

अलका अग्रवाल

निःस्वार्थ भाव से प्राणि सेवा करने वाले, अपने हर कार्य को सच्चाई व ईमानदारी से निभाने वाले लोगों के काँधों पर ही इस सृष्टि का भार टिका है।प्रेरणादायक आलेख।??

Rita Singh

धनाजी जैसे संत ही इस पृथ्वी को डिगने से बचाए हुए हैं ।संसार में ऐसे लोग ही वास्तव में संत हैं।आज हम ईमानदारी की दाद देते हैं पर वास्तव में यह गुण तो हर मनुष्य में निहित है।प्रलोभन ने मनुष्य को भटका दिया।
बहुत सुंदर लेख।