श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा श्रंखला “Representing People …“ की प्रथम कड़ी ।)
☆ कथा कहानी # 48 – Representing People – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.
मेरे स्कूल युग से लेकर आज़तक के मिश्रित अनुभवों और धारणाओं के आधार पर लिखने का प्रयास रहेगा.रिकार्डेड कुछ भी नहीं, सब इंस्टेंट ही रहेगा.स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूं कि ये श्रंखला विवादों को जन्म देने या फिर किसी शख्सियत को टॉरगेट करने के लिये नहीं लिखी जायेगी. अगर आप लोग भी अपने अनुभव और विचार रखेंगे तो काफी कुछ रोचकता बनी रहेगी. विचारों में तथ्यों और सद्भाव, सहभागिता को रोचक बना सकते हैं पर अगर विवादित बनने की दिशा में बढी तो स्थगित करना विवशता होगी पर इस कारण हम सभी एक स्वस्थ्य और गंभीर विचार विमर्श से वंचित हो सकते हैं. जो अपने अतीत की भडा़स निकालने की मंशा से इस विचार श्रंखला का दुरुपयोग करना चाहेंगे, उनसे क्षमा चाहता हूँ.ये ग्रुप को घिसे पिटे रास्ते की जगह अनुभवों की सहभागिता का प्रयास है. कितना सफल होगा, याद किया जायेगा यह भविष्य ही बतलायेगा. यह चुनौतीपूर्ण तो है पर अपना पक्ष या विचार रखने का अवसर भी है. कभी कभी भीड़ के आगे चलने वालों को गलत भी समझ लिया जाता है और संवादहीनता की स्थिति, धुंध को हटा नहीं पाती.इससे पहले कि पूर्वाग्रह, भ्रमित करें, पहला भाग प्रस्तुत है.
जब मासूम बचपन घर और परिवार से बाहर निकलकर स्कूल की कक्षाओं की सीढ़ियां चढ़ता है तो उसका सामना एक अलग तरह के छात्र से होता है जिसे मॉनीटर (पहले की शब्दावली) कहते हैं. ये टीचर और छात्रों के बीच की कड़ी होता है पर टीचर की अनुपस्थिति में क्लास का अनुशासन बनाए रखने की अपेक्षा, इनसे ही की जाती है. प्रारंभिक शिक्षणकाल में ये चुने नहीं जाते बल्कि टीचर द्वारा ही नामांकित किये जाते हैं जिसका आधार टीचर की दृष्टि में होशियार होना ही होता है. इसी तरह विद्यालय की विभिन्न टीम के भी कैप्टन होते हैं जो उस खेल में प्रवीणता, प्रभावशाली छवि और टीम प्लेयर्स को टीम स्प्रिट से ऊर्जावान बनाते हुये विजय के लक्ष्य को प्राप्त करने की जीतोड़ कोशिश करते हैं. स्कूल से लेकर राष्ट्र को रिप्रेजेंट करने वाली हर टीम में एक उप कप्तान या वाईस़ कैप्टन भी होता है. उप कप्तान न केवल कप्तान को फैसलों में मदद करता है बल्कि वह टीम का भावी कप्तान भी हो सकता है. क्लास मॉनीटर से अपेक्षा तो हो सकती हैं पर इनका कोई लक्ष्य नहीं होता. स्कूलों से निकलकर जब ये पीढ़ी कॉलेज केम्पस और विश्वविद्यालय पहुंती है तो छात्र संघ नामक संस्था से संपर्क होता है. “ये वो जगह है दोस्तो” जो भविष्य की वो शख्सियत का पोषण करता है जो आगे चलकर नगर, प्रदेश और देश तथा विभिन्न सामाजिक और औद्योगिक संस्थाओं के लिये वास्तविक अर्थों में “Representing the People” का रोल निभाते हैं. जबलपुर के शरद यादव और सागर विश्वविद्यालय के रघु ठाकुर के सफर से हममें से अधिकांश परिचित होंगे.
कुछ लोग जन्मजात ही लीड करते हैं, कुछ को कुर्सियाँ लीड करने का मौका देती हैं तो कुछ पर ये लीडरशिप थोप दी जाती है. हमारे माननीय मनमोहन सिंह जी इस तीसरी श्रेणी के ज्वलंत उदाहरण हैं. भगवान कृष्ण बजपन से ही गोप गोपियों के नेता थे और महाभारत युद्ध के भी असली नायक तो वही थे. याने representing the people since childhood.अब जो कुर्सियों के कारण लोगों को रिप्रसेंट करते हैं, उनमें बहुत सारे उदाहरण मिल जायेंगे और इन लोगों को कुर्सी से हटने के बाद ही पता चलता है कि जनभावनाओं को, जन जन की शक्ति से वे आवाज़ दे नहीं पाये क्योंकि आवाज़ में समूह की शक्ति का प्रभाव नज़र ही नहीं आया. जब एक प्रभावशाली नक्षत्र स्थान से हटकर शून्य या अंधेरा उत्पन्न कर दे तो, जरूरत रिप्रसेंट करने के लिये उस शख्स की होती है जो उस खाली जगह को निर्विवादित रूप से भर दे. स्वतंत्रता संग्राम किसी एक व्यक्ति या एक विचारधारा का युद्ध नहीं था पर गांधी उस जनभावना को रिप्रसेंट कर रहे थे जो भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देखना चाहती थी. उस लक्ष्य की प्राप्ति में अनेकानेक जीवन आहूतियां दी गई और उन सब की आकांक्षा भी, आने वाली पीढ़ियों को आज़ाद हिंदुस्तान की हवा में सांस लेने का मौका देना ही था.
Representing the people का अर्थ ही जन असंतोष और जन समस्याओं की नब्ज़ पहचानना, और उन्हें न्यायिक और तर्कसंगत बनाकर वहां तक ले जाना होता है जहां से इनका निदान संभव है, यही लक्ष्य है और इसे पाने के लिये बेझिझक, बिना अपने हित की चिंता किये पहला कदम बढ़ाना ही रिप्रेसेन्टिंग द पीपल की परिभाषा है. सफलता या असफलता नेतृत्व की चुनौतियां हो सकते हैं, मापदंड नहीं।अन्ना हजारे पागल नहीं थे, असफल हो गये पर भ्रष्टाचार से उपजे जनअसंतोष को उन्होंने आंदोलन की दिशा दी. जयप्रकाश नारायण ने निरंकुशता को चुनौती दी और जन असंतोष और प्रबल जन भावना के तूफानी वेग से सरकार पलट दी. “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” ये जेपी की क्षीणकाय काया की अपने युग की सबसे बुलंद आवाज़ बनी.
श्रंखला जारी रहेगी.
© अरुण श्रीवास्तव
संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈