डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  मन  पर एक कविता   “मौन मन का मीत। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 21☆

☆ मौन मन का मीत ☆  

 

मौन मन का मीत,

मौन परम सखा है

स्वाद, मधुरस मौन का

हमने चखा है।

 

अब अकेले ही मगन हैं

शून्यता,  जैसे  गगन है

मुस्कुराती  है, उदासी

चाहतों के,शुष्क वन है

जो  मिले एकांत  क्षण

उसमे स्वयं को ही जपा है, मौन…….

 

कौन है किसकी प्रतीक्षा

कर रहे खुद की समीक्षा

हर घड़ी, हर पल निरंतर

चल रही, अपनी  परीक्षा

पढ़ रहे हैं, स्वयं को

अंतःकरण में जो छपा है, मौन…..

 

हैं, वही  सब चाँद तारे

हैं, वही प्रियजन हमारे

और हम भी तो वही हैं

आवरण, कैसे उतारें

बाँटने  को  व्यग्र हम

जो, गांठ में बांधे रखा है,मौन…..

 

मौन,सरगम गुनगुनाये

मौन, प्रज्ञा को  जगाये

मौन,प्रकृति से मुखर हो

प्रणव मय गुंजन सुनाये

मौन  की  तेजस्विता से

मुदित हो तन मन तपा है..

स्वाद मधुरस मौन का

हमने चखा है

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

 

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