श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 142 ☆
☆ एक आत्म कथा – मैं गंगा मां हूं ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
हां हां पहचाना मुझे! मैं गंगा मां हूं।
मैं गंगा मां ही बोल रही हूं, क्या सुनाई दे रही है तुम्हें मेरी आवाज़?
मैं गंगा के किनारे पूर्णिमा के दिन रात्रि बेला में धवल चांदनी से युक्त निस्तब्ध वातावरण में गंगा घाट पर अपनी ही धुन में खोया हुआ बैठा था, गंगा में चलने वाली नावों के चप्पुओं की गंगा जल में छप छप करती लहरों से अठखेलियां करती आवाजों तथा गंगा की धाराओं से निकलने वाली कल-कल ध्वनियों में खोया हुआ था कि सहसा किसी नाव पर रखे रेडियो पर आकाशवाणी विविध भारती से बजने वाले गीत ने मेरा ध्यान आकर्षित किया————
*मानो तो मैं गंगा मां हूं,ना मानो तो बहता पानी*
और ये गीत मेरे मन की अतल गहराइयों में उतरता चला गया और उस चांदनी रात की धवल जल धारा से एक आकृति प्रकट होती हुई जान पड़ी जो शायद उस मां गंगा की आत्मा थी। और अपने पुत्र भीष्म पितामह की तरह मुझसे भी संवाद करने के लिए व्यग्र दिखाई दे रही थी। उनके चेहरे पर चिंता और विषाद की अनगिनत रेखाएं झलक रही थी। उनके दिल में जमाने भर का दर्द समाया हुआ था। जो बातों बातों में दिखा भी।
फर्क सिर्फ इतना था कि महाभारत कालीन भीष्म अपने हृदय की पीड़ा मां गंगा से कहते थे, लेकिन आज मां गंगा स्वयं अपने धर्मपुत्र यानि मुझ लेखक सेअपने हृदय की पीड़ा व्यक्त करने को आतुर दिखी थी। वे मुझे ही संबोधित करते हुए बोल पड़ी थी।
लो सुन लो तुम भी मेरी व्यथा कथा,ताकि मेरे हृदय का बोझ थोडा़ सा हल्का हो जाय।
हां अगर तुम मानो तो मैं गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता हुआ पानी हूं।
लेकिन मेरा दोनों ही रूप जनकल्याणकारी है। यदि मैं एक मां के रूप में आस्थावान लोगों से पूजित हो लोगों को अपनी ममता प्यार और दुलार देकर तारती हूं, औरउनके द्वारा पूजित हूं तो , नास्तिक लोगों के अनुसार बहते हुए जलधारा के रूप में इस मानव समुदाय को पीने के लिए शुद्ध जल अन्न फूल फल भी उपलब्ध कराती रही हूं। इस तरह मेरा दोनों रूप लोक-मंगल कारी था।
यूं तो मेरा जन्म पौराणिक कथाओं की मान्यता के अनुसार भगवान श्री हरी के चरणोदक से हुआ है। लेकिन रही मैं युगों-युगों तक ब्रह्मा जी के कमंडल में ही। उन्हीं दिनों परमपिता ब्रह्मा ने राजा भगीरथ के भगीरथ प्रयत्न से प्रसन्न होकर मुझे उनके पूर्वजों के तारने का लक्ष्य लेकर ब्रह्म लोक से अपने कमंडल से मुक्त कर दिया। जब प्रबल वेग से हर-हर करती पृथ्वी की तरफ चली तो सारी सृष्टि में त्राहि-त्राहि मच गई। प्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया था।मेरा वेग रोकने की क्षमता सृष्टि के किसी प्राणी में नहीं थी। इसी लिए घबरा कर राजा भगीरथ एक बार भगवान शिव की शरण में चले गए, उस समय भगवान शिव ने उनकी तपस्या से प्रसन्न हो मुझे अपनी जटाओं में उलझा लिया था। तथा राजा भगीरथ के आग्रह पर कुछ अंशों में मुझे मुक्त कर दिया था। मैं गोमुख से प्रकट हो गंगोत्री से होती हुई उनके पुरखों (राजा सगर की) संततियों को तारने हेतु भगीरथ के पीछे पीछे चल पड़ी थी। और उनका तारन हार बनी ऐसा पुराणों का मत है तथा इतिहास की गवाही।
उसके बाद से अब तक मैंने अच्छे-बुरे बहुत समय देखें, मैंने लोगों का श्रद्धा विश्वास और भरोसे से भरा हृदय देखा मैंने देखा कि किस प्रकार लोग अपना इहलोक और परलोक संवारने हेतु मुझमें गोते लगाते और मेरा पावन जल पात्रों में भर कर देवताओं का अभिषेक तथा आचमन करने हेतु ले जाते थे। एक विश्वास ही उनके भीतर था, जो उन्हें अपने परिजनों के चिता की राख को उनके तारण हेतु मुझमें प्रवाहित करने हेतु विवश करता था। लेकिन आज़ मैं विवश हूं। मुझे अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जीवन और मृत्यु की जद्दोजहद में इस आशा विश्वास और भरोसे के साथ जी रही हूं कि भविष्य में शायद इस मानव कुल में कोई महामानव भगीरथ बन पैदा हो और मेरा पूर्वकालिक स्वरूप वापस देकर मुझे नवजीवन दे दे। आज मैं मानवीय अत्याचारों से दुखी अपने जीवन की अंतिम सांसें गिन रही हूं।
मुझे खुद के भीतर की गंदगी और खुद का घिनौना रूप देख खुद से घृणा तथा उबकाई आने लगी है। और इस सबका जिम्मेदार सामूहिक रूप से तुम्हारा मानव समाज ही है। कोई समय था जब मैं गोमुख से अपनी धवलधार संग राजा भगीरथ के पीछे पीछे जड़ी बूटियों का सत लेकर मंथर गति से चलती हुई मैदानी इलाकों से गुजर कर सागर से जा मिली थी और गंगासागर तीर्थ बन गई थी।उस समय हमारा मिलन देख देवता अति प्रसन्न हुए थे। तथा सागर ने अपनी बाहें पसार कर अपनी उत्ताल तरंगों से मेरा स्वागत किया था।अपनी उत्ताल तरंगों तथा मेरी कल कर की ध्वनि सुनकर सागर भी सम्मोहित हो गया था तथा मेरे साथ छाई छप्पा खेलते हुए एक दूसरे में समाहित हो मैंने अपना अस्तित्व गंवा दिया था और सागर बन बैठी थी।
उस यात्रा के दौरान अनेक ऐसे संयोग बने जब अनेकों नद नाले आकर मुझमें समा गए। तब मुझे ऐसा लगता जैसे वे अपने पावन जल से मेरा अभिषेक करना चाह रहे हों। लेकिन अब मैं क्या करूं, किसके पास जांऊ अपनी फरियाद लेकर। कौन है जो सुनेगा मेरी पीड़ा , क्यौ कि अब तो मेरे पुत्रों की आने वाली पिढियां गूंगी बहरी तथा पाषाण हृदय पैदा हो रही है। उनका हृदय भी भावशून्य है। अब उन सबको मेरा यह बिगड़ा स्वरूप भी आंदोलित नहीं करता। लोगों ने जगह जगह बांध बना मेरी जीवन रेखा की जलधारा को छीन लिया। मुझमें गन्दे नाले का मल जल तथा औद्योगिक अपशिष्ट बहा कर जिम्मेदार लोगों ने अवैध धन उगाही की मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। और मेरी सफाई के नाम पर भ्रष्टाचार की एक नई अंतर्धारा बहा दी। मेरे सफाई के नाम पर अरबों खरबों लुटाए गए फिर भी मैं साफ नहीं हुई। क्योंकि मेरी सफाई के लिए जिस दृढ़ इक्षाशक्ति और इमानदार प्रयास की जरूरत थी वो नहीं हुआ उसके साथ ही अपनी मुक्ति का सपना संजोए मेरे पास आने वाली तुम्हारी पीढ़ियों के लोगों ने भी आस्था के नाम पर मुझे गंदा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। मुझे लगता है कि लगभग सवा अरब की आबादी वाली सारी औलादें नाकारा हो गई है।
मैं तो सदियों सदियों से चिताओं की राख लेकर लोगों को मोक्ष देती रही तथा श्रद्धा से समर्पित फूल मालाओं की डलियां लेती रही लेकिन कभी भी इतनी गन्दी नहीं थी।
आखिर इस देश के नीति-नियंताओं के समझ में यह साधारण सी बात कब आएगी?, मेरी गंदगी का कारणबने नालों कचरे कब रोके जाएंगे?
मेरी जीवनजलधारा को अनवरत जलप्रवाह कब प्राप्त होगा?
यदि मेरी जल धारा को मुक्त कर दिया जाए तथा नालों की गंदगी रोक दी जाए तो मेरी सफाई की जरूरत ही न पड़े।
तुम सब याद रखना यदि मेरी जलधारा मुक्त नहीं हुई तुम सबका राजनैतिक शह मात का खेल चलता रहा तो मैं तो एक दिन अकालमृत्यु मरूंगी ही मेरी अंतरात्मा के अभिशाप से तुम्हारी पीढ़ियां भी जल के अभाव में छटपटाते बिलबिलाते हुए मरेंगी। और मैं अतीत के इतिहास में दफन हो कर कालखंड के इतिहास का पन्ना बन कर रह जाउंगी। फिर तुम्हारी पिढियां मेरी मौत पर मातम मनाने का तमाशा करती दिखेंगी।
अब भी चेत जाओ ,हो सके तो मुझे जीवन देकर मौत से अपनी सुरक्षा कर लो। इस प्रकार संवाद करते हुए मां गंगा के चेहरे पर आक्रोश छलकने लगा कि सहसा गंगा घाट पर चलने वाले प्रवचन पंडाल से यह ध्वनि सुनाई पड़ी——
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।
तैसई नाथ पुरुष बिनु नारी।।
जो जीवन के यथार्थ समझा गई थी।
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈