श्री संतोष नेमा “संतोष”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है “संतोष के दोहे – भ्रष्टाचार”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 140 ☆
☆ संतोष के दोहे – भ्रष्टाचार ☆ श्री संतोष नेमा ☆
नैतिकता जब सुप्त हो, जागे भ्रष्टाचार
बेईमानी भरी तो, बदल गए आचार
हरड़ लगे न फिटकरी, खूब करें वे मौज
अब के बाबू भ्रष्ट हैं, इनकी लम्बी फ़ौज
कौन रोकता अब किसे, शासक, नेता भ्रष्ट
अंधा अब कानून है, जनता को बस कष्ट
हुआ समाहित हर जगह, किसको दें हम दोष
बन कर पारितोषिक वह, दिला रहा परितोष
दया-धर्म सब भूलकर, निष्ठुर होता तंत्र
भ्रष्टाचारी जानते, बस दौलत का मंत्र
आमदनी है अठन्नी, खर्च करें दस बीस
महल घूस का बना कर, बनते मुफ्त रईस
फैशन सा अब बन गया, देखो भ्रष्टाचार
मानवता अब सिसकती, देख भ्रष्ट आचार
लालच में जो बेचते, अपना स्वयं जमीर
किये बिना संघर्ष ही, चाहें बनें अमीर
चुने कौन संतोष अब, संघर्षों की राह
पैसे जल्दी बन सकें, बस रखते यह चाह
© संतोष कुमार नेमा “संतोष”
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈