श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “टीम बड़ी या नेतृत्व”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 121 ☆
☆ टीम बड़ी या नेतृत्व ☆
बहुत से लोग अपनी सशक्त टीम के बल पर शीर्ष पर पहुँचते हैं। बस यहीं से टीम टूटने लगती है उसके सदस्यों को लगता है कि यहाँ तक उन्होंने पहुँचाया है जबकि स्थिति इससे उलट होती है। सबसे महत्वपूर्ण कार्य विजन का होता है जो कि टीम लीडर ने किया है। उसके बाद लक्ष्य तय करना, योजना बनाना, उसे पूरा करने की सीमा तय करना, सदस्यों का चयन उनकी उपयोगिता के आधार पर, उनसे कार्य करवाना, दिशा निर्देशन देना। यहाँ तक कि हर छोटे- बड़े फैसले भी खुद लेना।
अब तक के कार्यों को देखें तो इसमें टीम ने क्या किया है ? दरसल ये सदस्य किसी एक कार्य के लिए चुने जाते हैं उसके पूरा होते ही इनका टूट कर बिखरना पहले से ही तय रहता है। जब टीम के सदस्य कार्य करते हैं तो उन्हें प्रोत्साहित करने हेतु कहा जाता है कि आप ने यह कार्य बहुत अच्छे से किया, ऐसा कोई कर नहीं सकता। बस यहीं से वो भ्रमित होकर अपने को सर्वे सर्वा समझने लगते हैं और खुद अलग होकर स्वतंत्र कम्पनी स्थापना कर बैठते हैं। अगर ध्यान से देखिए तो पता चलेगा कि टीम के सदस्यों ने केवल वही कार्य किया जो लीडर ने निर्धारित किया था। इनसे जो पहले से बनता था उतना आज भी बन रहा है। बस इनको ये भ्रम हो गया था कि इनके दम पर ये लीडर बना है।
ऐसा जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है, हम बिना स्वमूल्यांकन के अनजाने क्षेत्रों में कूद पड़ते हैं और बाद में हताश होकर अधूरे कार्यों के साथ दोषारोपण करते हैं। जरा सोचिए कि अलग- अलग होकर बिना मतलब का कार्य करने से कहीं अधिक अच्छा होता कि एक जुटता के साथ किसी बड़े लक्ष्य पर कार्य करते।
इस संदर्भ में एक प्रसंग याद आ रहा है कि एक संस्था प्रमुख ने अपने जन्मोत्सव को मनाने के लिए सभी साहित्यकारों को इकट्ठा किया और अपने अनुसार पूरे सात दिनों तक गुणगान करवाया। समय पास करने हेतु लोग मिल जाते हैं सो उन्हें भी मिल गए। खूब माला पहनी व पहनायी। अंत में भोजन की व्यवस्था भी थी सो हास- परिहास के साथ सब कुछ सम्पन्न हो गया।
जरा सोचिए कि जब बुद्धिजीवी वर्ग ऐसे कार्यक्रमों में शामिल होकर अपने को जाया करेगा तो हम विश्व स्तर पर कैसे पहुँचेंगे, जब हमारा लक्ष्य ही आत्म केंद्रित हो जाएगा तो हिंदी का परचम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कैसे फहरा पायेंगे।
बात वहीं पर आकर ठहरती है कि जिस नेतृत्व में आप कार्य कर रहें उसे योग्य, दूरदर्शी व सबको साथ लेकर चलने वाला है या नही।
खैर कुछ भी करें पर करते रहिए। सार्थक कार्य आपको कभी न कभी शीर्ष पर विराजित करेगा किन्तु आलस्य सामान्य सदस्य भी बना रहने देगा या नहीं ये कहा नहीं जा सकता है।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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