प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक गीत – “गुजरा जमाना…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #107 ☆  गीत – “गुजरा जमाना…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

अचानक जब कभी गुजरा जमाना याद आता है

तो नजरों में कई बरसों का नक्शा घूम जाता है।

 

वे बचपन की शरारत से भरी ना समझी की बातें

नदी के तीर पै जा-गा बिताई चादनी राते

सड़क, स्कूल, साथी, बाग औ’ मैदान खेलों के

वतन के वास्ते मर-मिटने का मंजर दिखाता है।।1।।

 

हरेक को अपनी पिछली जिंदगी से प्यार होता है

बदल जाता है सब लेकिन वही संसार होता है

दबी रह जाती है यादें झमेलों और मेलो की

नया सूरज निकल नई रोशनी नित बाँट जाता है।।2।।

 

बदलता रहता है जीवन नही कोई एक सा रहता

नदी का पानी भी हर दिन नया होकर के ही बहता

मगर बदलाव जो भी होते हैं अच्छे नही लगते

बनावट का नये युग से वै बढ़ता जाता नाता है।।3।।

 

भले भी हो मगर बदलाव लोगों को नहीं भाते

पुराने दिनों के सपने भला किसको नहीं आते

नये युग से कोई भी जल्दी समरस हो नहीं पाता

पुरानी यादों में मन ये हमेशा डूब जाता है।।4।।         

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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