प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “वह याद चली आती…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #108 ☆ ग़ज़ल – “वह याद चली आती…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
दुनियाँ से जुदा, दिल में रहती है जो शरमाई
वह याद चली आती, जब देखती तनहाई।
मिलकर के मेरे दिल को दे जाती है कुछ राहत
जो रखती मुझे हरदम उलझनों में भरमाई।
लगती उदास मुझको ये कायनात सारी
तस्वीर तुम्हारी ही आँखों में है समाई।
सदा सोते जागते भी सपने मुझे दिखते है
पर फिर से कभी मिलने तुमसे न घड़ी आई।
अनुमान के परदे पर कई रूप उभरते है
कभी बातें करते, हँसते पड़ती हो तुम दिखाई।
सब जानते समझते धीरज नहीं मन धरता
पलकों में हैं भर जाते कभी आँसू भी बरियाई।
मन बार-बार व्याकुल हो साँसें भरा करता
कर पाई कहॉ यादें इन्सान की भरपाई।।
दिन आते हैं जाते हैं पर लौट नहीं पाते
देती ’विदग्ध’ दुख यह संसार की सच्चाई।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈