श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य – “मेरा नाम मैं, तेरा नाम तू”।)
☆ व्यंग्य # 163 ☆ “मेरा नाम मैं, तेरा नाम तू” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं । हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)
गांव के खपरैल मकान की गोबर लिपी खुरदुरी जमीन पर जब हम रात तीन बजे उतरे, तो नाइन ने लालटेन की रोशनी में सब्जी काटने की चाकू से नरा काट दिया था और शरीर को उल्टा पुल्टा कर के नाम ढूंढा था पर शरीर में कहीं भी नाम लिखा नहीं आया था। नाइन को शरीर में ऐसा क्या कुछ दिखा कि उसने नवजात शिशु का नाम ‘लड़का’ रख दिया। नाम की शुरुआत यहीं से हो गई।
सुबह गांव के चौपाल में लड़का होने की बात हुई और ये भी बात हुई कि आज से मुगलसराय का नाम बदल गया ।कुछ दिन बाद मालिश करते हुए नाइन बड़बड़ाई कि लो अब इलाहाबाद और हबीबगंज भी हाथ से गया ।
मालिश के प्रताप से लड़के के शरीर में चर्बी फैलने लगी तो कोई कहता क्यूट बेबी, कोई कहता वाह रे लल्ला, कोई कहता मुन्ना रे मुन्ना, कोई कहता होनूलुलु…… न जाने किस किस नाम से रोज पुकारा गया। दिन में पांच सात बार नाम बदलते रहे। दशरथ के पुत्र बड़े भाग्यवान थे कि जब ठुमक के पहली बार चले तो पूरी दुनिया गाने लगी……
“ठुमक चलत रामचन्द्र बाजत पैजनियां”
इस प्रकार धरती पर पहली बार ठुमक के चलने से उनको स्थायी नाम मिल गया। इधर हमारे गरीब परिवार के अधिकांश बच्चों को स्थायी नाम स्कूल का हेड मास्टर ही मजबूरी में दे पाता है।
जिनका नाम नहीं होता वह इंसान नहीं होता, इसलिए पुराने जमाने में पत्नी अपने पति का नाम नहीं लेती थी, पति को पप्पू के पापा कहके पुकारती थी।
नाम रखने में बड़े चोचले होते हैं, नाइन कुछ नाम लेकर आती है, नानी कुछ नाम और भेजती है, आजा – आजी कुछ और नाम रखना चाहते हैं, नाम रखने की प्रतियोगिता होती है फिर नाम रखने में ईगो टकराते हैं और नाम रखने के चक्कर में बाप-महतारी लड़ पड़ते हैं इस प्रकार नाम रखने का काम टलता जाता है। पांच साल लल्ला- मुन्ना जैसे टेम्प्ररी नाम से काम चलता रहता है। प्रापर नाम नहीं मिलने से घर में ऊधम जब बढ़ जाता है तो ऊधम करने वाले की हेड मास्टर के सामने पेशी हो जाती है। हेड मास्टर बोला स्कूल में ये लल्ला – मुन्ना नहीं चलेगा कोई परमानेन्ट नाम देना पड़ेगा, ऐसा नाम जिसको रिकार्ड करना पड़ेगा और वही नाम भविष्य में समाज, शासन, आधार कार्ड, वोटर कार्ड और अंत में श्मशान में काम आयेगा।
शहरों, स्मारक, स्टेशन के नाम परिवर्तन को लेकर कालेज की वाद विवाद प्रतियोगिता में विवाद की स्थिति पैदा हो गई। राम के नाम पर भी विवाद हो गया। जिस नाम को सामाजिक मान्यता मिल जाती है उसको बदलने से आक्रोश पैदा होता है। पक्ष और विपक्ष में टकराव होता है, राज पथ का नाम अब कर्तव्य पथ हो रहा है। इतिहास को खोद कर नये विवाद पैदा किये जाते हैं। नियति के बदलने से नाम बदलने का जुनून सवार हो जाता है।
नाम बदलने के कई छुपे हुए कारण है कुछ होता-जाता नहीं है तो नई चाल खेली जाती है। वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन में जिस शहर का नाम सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में आ जाता है उन शहरों के नाम बदल के सूची से नाम दूर हो जाता है और यदि अकबर से बदला लेने का मूड बन गया तो इलाहाबाद को प्रयाग राज कर दिया जाता है जिससे नाम परिवर्तन करने वाले का इतिहास में नाम दर्ज हो जाता है।
स्वीटी है कि अपनी जिद पर अड़ी है कहती है – नाम-वाम में कुछ नहीं रखा है काम से मतलब है काम करोगे तो नाम होगा, स्वीटी की बात सुनकर किसी ने कहा – ‘नाम गुम जाएगा…. चेहरा ये बदल जायेगा, मेरी आवाज ही पहचान है….. और यदि आवाज भी खराब हो गई तो आधार तो है आधार से काम चल जाएगा उसमें नाम मिल ही जाएगा। देखो भाई, सीधी सी बात ये है कि नाम में क्या रखा है काम से नाम होता है।
दशरथ के पुत्र राम का नाम उनके काम से हुआ, वे मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहलाए, तभी तो सब कहते हैं…….
“राम का नाम सदा मिसरी
सोवत जागत न बिसरी”
© जय प्रकाश पाण्डेय
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शानदार अभिव्यक्ति भाई, दमदार व्यंग