डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज की  व्यंग्य  पुरुष बली नहिं होत है ।  यह  व्यंग्य पढ़ने के बाद कई  विवाहित पुरुषों की भ्रांतियां दूर हो जानी चाहिए और जो  ऊपरी मन से स्वीकार न करते  हों वे मन ही मन तो स्वीकार कर ही लेंगे। ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 26 ☆

☆ व्यंग्य – पुरुष बली नहिं होत है ☆

 

हमारे समाज में पुरुषों ने यह भ्रम फैला रखा है कि समाज पुरुष-प्रधान है और मर्दों की मर्जी के बिना यहाँ पत्ता भी नहीं खड़कता। लेकिन थोड़ा सा खुरचने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कोरी बकवास और ख़ामख़याली है। कड़वी सच्चाई यह है कि आदिकाल से पुरुष स्त्री का इस्तेमाल करके अपना काम निकालता रहा है, और इसके बावजूद अपनी श्रेष्ठता का दम भरता रहा है। इसलिए इस मुग़ालते के छिलके उतारकर हक़ीक़त से रूबरू होना ज़रूरी है।

करीब दस दिन पहले मेरे पड़ोसी खरे साहब ने अपने नौकर को दारूखोरी के जुर्म में निकाल दिया था। उस समझदार ने दूसरे दिन अपनी पत्नी को खरे साहब के घर भेज दिया।पति के इशारे पर मोहतरमा ने खरे साहब के दरवाज़े पर बैठकर ऐसी अविरल अश्रुधारा बहायी कि सीधे-सादे खरे साहब पानी-पानी हो गये। नौकर को तो उन्होंने बहाल कर ही दिया, उसकी पत्नी को विदाई के पचास रुपये और दिये। चतुर पति ने लक्ष्यवेध के लिए भार्या के कंधे का सहारा लिया।

बहुत से लेखक, जो अपने माता-पिता के दिये हुए नाम से पत्रिकाओं में नहीं छप पाते, कई बार स्त्री-नाम का सहारा लेते हैं। कहते हैं नाम परिवर्तन से वे अक्सर छप भी जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि स्त्री-नामों के लिए संपादकों के दिल में एक ‘मुलायम कोना’ होता है।

आजकल बस और ट्रेन के टिकटों के लिए लंबी लाइन लगती है। लेकिन महिलाओं की लाइन अलग होती है और स्वाभाविक रूप से वह छोटी होती है।बुद्धिमान पति अपनी पत्नी को लाइन में लगा देता है और खुद मुन्ना को गोद में लेकर सन्देह के दायरे से दूर खड़ा होकर तिरछी नज़रों से देखता रहता है। पत्नी जब टिकट लेकर लौटती है तब पतिदेव अपने सिकुड़े हुए सीने को चौड़ा करते हैं और पुनः ‘पुरुष बली’ बनकर पत्नी के आगे आगे चल देते हैं।

ट्रेन में घुसने के लिए भी पति महोदय वही स्टंट काम में लाते हैं। भीड़ भरे डिब्बे में भीतरवाले दरवाज़ा नहीं खोलते। ऐसी स्थिति में पति महोदय एक खिड़की पर पहुँचते हैं और खिड़की के पास आसीन लोग जब तक स्थिति को समझें तब तक पत्नी को बंडल बनाकर अन्दर दाखिल कर देते हैं। पति महोदय जानते हैं कि पत्नी को कोई हाथ नहीं लगाएगा। इसके बाद वे चिरौरी करते हैं, ‘भाई साहब, जनानी सवारी अन्दर है, अकेली छूट जाएगी। आ जाने दो साब, गाड़ी छूट जाएगी।’ और यात्रियों के थोड़ा ढीला पड़ते ही वे अपनी टाँगों को एडवांस भेजकर डिब्बे में अवतरित हो जाते हैं।

फिर पति महोदय सीट पर बैठे किसी यात्री से अपील करते हैं, ‘भाई साहब,  थोड़ा खिसक जाइए, जनानी सवारी बैठ जाए। ‘ हिन्दुस्तानी आदमी भला महिला हेतु किये गये आवेदन का कैसे विरोध करेगा?भाई साहब खिसक जाते हैं और जनानी सवारी बैठ जाती है। फिर पति-पत्नी में नैन-सैन होते हैं, पत्नी खिसक खिसककर थोड़ी सी ‘टेरिटरी’ और ‘कैप्चर’ करती है और पतिदेव को इशारा करती है। जब तक सीट वाले संभलें तब तक प्रियतम भी बड़ी विनम्रता से प्रिया के पार्श्व में ‘फिट’ हो जाते हैं। अब भला राम मिलाई जोड़ी को कौन अलग करे?

राशन की लाइनों में भी यही होता है। महिलाओं की लाइन अलग होती है। पत्नी को लाइन में लगाकर पुरुष चुपचाप दूर बैठ जाता है। पत्नी जब राशन लेकर निकलती है तो पुरुष महोदय तुरन्त अंधेरे कोने से निकलकर बड़े प्रेम से  उसके हाथ का थैला थाम लेते हैं और लाइन में लगे पुरुषों पर दयापूर्ण दृष्टि डालते हुए घर को गमन करते हैं।

इसलिए कुँवारों से मेरा निवेदन है कि यदि आप बसों और ट्रेनों के टिकटों के लंबे ‘क्यू’ से परेशान हों,ट्रेनों में जगह न पाते हों या डेढ़ टाँग पर खड़े होकर यात्रा करते हों, राशन की लाइन के धक्कमधक्का से त्रस्त हों,तो देर न करें। कुंडली मिले न मिले, तुरंत शादी को प्राप्त हों और इन अतिरिक्त सुविधाओं का लाभ उठाएं। पत्नी थोड़ी स्वस्थ हो ताकि भीड़भाड़ में मुरझाए नहीं और साथ ही थोड़ी कृशगात भी हो ताकि आप बिना शर्मिन्दा हुए उसे अपनी बाहुओं में उठाकर ट्रेन की खिड़की में प्रविष्ट करा सकें।आपके सुखी भविष्य का आकांक्षी हूँ।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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