डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक लघुकथा ‘कँगुरिया’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 110 ☆
☆ लघुकथा – कँगुरिया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
ए बहिनी! का करत हो?
कुछ नाहीं, आपन कँगुरिया से बतियावत रहे।
का! कउन कंगुरिया? इ कउन है?
‘नाहीं समझीं का ‘? सुनीता हँसते हुए बोली।
अरे! हमार कानी उंगरिया, छोटी उंगरिया —
अईसे बोल ना, हमका लगा तुम्हार कऊनों पड़ोसिन बा (दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं)।
कानी उंगरिया से कऊनों बतियावत है का?
अब का बताई छुटकी! कंगुरिया जो कमाल किहेस है, बड़े-बड़े नाहीं कर सकत। उसकी हँसी रुक ही नहीं रही थी।
अईसा का भवा? बतउबो कि नाहीं? हँसत रहबो खाली पीली, हम रखत हैं फोन – छुटकी नाराज होकर बोली।
अरे! तुम्हरे जीजा संगे हम बाजार गए रहे मोटरसाईकिलवा से। आंधर रहा, गाड़ी गड़्ढवा में चली गइस अऊर हम गिर गए। बाकी तो कुछ नाहीं भवा, हमरे सीधे हाथ की कानी उंगरिया की हड्डी टूट गइस। अब घर का सब काम रुक गवा( हँसते हुए बताती जाती है)। घर मा सब लोग रहे तुम्हार जीजा, दोनों बेटेवा, सासु–ससुरा। हमार उंगरिया मा प्लास्तर, अब घर का काम कइसे होई? घरे में रहे तो सब, कमवा कऊन करे? एही बरे रोटी बनावे खातिर एक कामवाली, कपड़ा तो मसीन से धोय लेत हैं पर झाड़ू – पोंछा और बासन सबके लिए नौकरानी लगाई गई।
देख ना! हमार ननकी कंगुरिया का कमाल किहेस!
©डॉ. ऋचा शर्मा
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