आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर” के गीत संग्रह “~ मधुर निनाद ~” पर चर्चा।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 124 ☆
☆ कृति चर्चा ~ मधुर निनाद : गीत संग्रह ~गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर” ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
पुस्तक विवरण –
मधुर निनाद, गीत संग्रह
गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर”
प्रथम संस्करण २०१७
पृष्ठ १३५
मूल्य २००/-
साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर
गीतकार संपर्क चलभाष ८१२७७८९७१०, दूरभाष ०७६१ २६५५५९९)
(आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित)
समीक्षक – आचार्य संजीव वर्मा “सलिल”
छंद हीन कविता और तथाकथित नवगीतों के कृत्रिम आर्तनाद से ऊबे अंतर्मन को मधुर निनाद के रस-लय-भाव भरे गीतों का रसपान कर मरुथल की तप्त बालू में वर्षा की तरह सुखद प्रतीति होती है। विसंगतियों और विडम्बनाओं को साहित्य सृजन का लक्श्य मान लेने के वर्तमान दुष्काल में सनातन सलिला नर्मदा के अंचल में स्थित संस्कारधानी जबलपुर में निवास कर रहे अभियंता कवि गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर” का उपनाम ही मधुर नहीं है, उनके गीत भी कृष्ण-वेणु की तान की तरह सुमधुर हैं। कृति के आवरण चित्र में वेणु वादन के सुरों में लीन राधा-कृष्ण और मयूर की छवि ही नहीं, शीर्षक मधुर निनाद भी पाठक को गीतों में अंतर्निहित माधुर्य की प्रतीति करा देता है। प्रख्यात संस्कृत विद्वान आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी ने अपने अभिमत में ठीक ही लिखा है कि मधुर निनाद का अवतरण एक साहित्यिक और रसराज, ब्रजराज की आह्लादिनी शक्ति श्री राधा के अनुपम प्रेम से आप्लावित अत:करण के मधुरतम स्वर का उद्घोष है…..प्रत्येक गीत जहाँ मधुर निनाद शीर्षक को सार्थक करता हुआ नाद ब्रह्म की चिन्मय पीठिका पर विराजित है, वहीं शब्द-शिल्प उपमान चयन पारंपरिकता का आश्रय लेता हुआ चिन्मय श्रृंगार को प्रस्तुत करता है।
विवेच्य कृति में कवि के कैशोर्य से अब तक गत पाँच दशकों से अधिक कालावधि की प्रतिनिधि रचनाएँ हैं। स्वाभाविक है कि कैशोर्य और तारुण्य काल की गीति रचनाओं में रूमानी कल्पनाओं का प्रवेश हो।
इंसान को क्या दे सकोगे?, फूलों सा जग को महकाओ, रे माँझी! अभी न लेना ठाँव, कब से दर-दर भटक रहा है, रूठो नहीं यार आज, युग परिवर्तन चाह रहा, मैं काँटों में राह बनाता जाऊँगा आदि गीतों में अतीत की प्रतीति सहज ही की जा सकती है। इन गीतों का परिपक्व शिल्प, संतुलित भावाभिव्यक्ति, सटीक बिंबादि उस समय अभियांत्रिकी पढ़ रहे कवि की सामर्थ्य और संस्कार के परिचायक हैं।
इनमें व्याप्त गीतानुशासन और शाब्दिक सटीकता का मूल कवि के पारिवारिक संस्कारों में है। कवि के पिता स्वतंत्रता सत्याग्रही स्मृतिशेष माणिकलाल मुसाफिर तथा अग्रजद्वय स्मृतिशेष प्रो. जवाहर लाल चौरसिया “तरुण” व श्री कृष्ण कुमार चौरसिया “पथिक” समर्थ कवि रहे हैं किंतु प्राप्य को स्वीकार कर उसका संवर्धन करने का पूरा श्रेय कवि को है। इन गीतों के कथ्य में कैशोर्योचित रूमानियत के साथ ईश्वर के प्रति लगन के अंकुर भी दृष्टव्य हैं। कवि के भावी जीवन में आध्यात्मिकता के प्रवेश का संकेत इन गीतों में है।
समीक्षक – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
१८-१२-२०२२, ७•३२, जबलपुर
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