डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कहानी  ‘जीणे जोगिए ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 182 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ जीणे जोगिए

(लेखक के कथा-संग्रह ‘जादू-टोना’ से) 

अम्माँ की आँख रात में कई बार खुलती है। रात काटना मुश्किल होता है। कई बार सवेरा हो जाने के धोखे में रात को दो तीन बजे ही स्नान-ध्यान से निवृत्त हो जाती हैं। अकेली होने के कारण कोई कुछ बताने वाला नहीं। नींद खुल जाए तो व्यस्त रहना ज़रूरी हो जाता है। बिस्तर पर लेटे लेटे कब तक ‘राम राम’ रटा जाए?

गाँव में रात वैसे भी सन्नाटे वाली होती है। कभी कोई भूली-भटकी मोटर-गाड़ी आ जाए तो आ जाए। इसी सन्नाटे को ढूँढ़ते शहर वाले बौराये से गाँव की तरफ भागते हैं और फिर दो दिन बाद सन्नाटे से घबराकर वापस शहर की तरफ भागते हैं।

कई बरस पहले पति की मृत्यु के बाद से अम्माँ गाँव में अकेली हैं। तीनों लड़के शहरों में नौकरी पर हैं। बड़ा महेश तो बड़ा इंजीनियर है। बाकी दोनों भी कमा-खा रहे हैं। तीसरे नंबर पर बेटी थी, वह भी अब बाल-बच्चे वाली है।

बेटों ने कभी माँ को स्थायी रूप से शहर ले जाने की बात नहीं की और अम्माँ ने भी भाँप लिया कि बेटों की रूचि उन्हें गाँव में ही रखने में है, इसलिए उन्होंने खामोशी से अपने को स्थितियों के अनुसार ढाल लिया है। एक खास वजह है गाँव की तीस-चालीस एकड़ ज़मीन जिसके बारे में बेटों का खयाल है कि किसी के न रहने पर अगल-बगल की ज़मीन वाले या रिश्तेदार कब्जा कर लेंगे। फिर मामला-मुकदमा करते कचहरी की चौखट पर सिर  फोड़ते फिरो। कहीं गुस्से में नौबत फौजदारी तक पहुँच जाए जो ज़िन्दगी भर का झमेला।

अम्माँ अब अपने ही बूते गाँव में अच्छी तरह रस-बस गयी हैं। गाँव में अब उनकी अपनी पहचान है। उम्र और शक्ति की सीमाएँ होते हुए भी वे कारिन्दे की मदद से खेती के काम को ठीक-ठाक सँभाल लेती हैं। अकेले काम करते-करते उनमें आत्मविश्वास भी खूब आ गया है। घर में जो पंडित पूजा करने आता है उसी की बेटी रोज़ एक समय चार रोटियाँ ठोक देती है। बाकी कोई खास काम नहीं रहता।

कारिन्दे और पंडित के बच्चों और गाँव की स्त्रियों-बच्चों के बीच अम्माँ की ज़िन्दगी की गाड़ी लुढ़कती जाती है। गाँव की कम-रफ्तार  ज़िन्दगी में ऐसे लोग आसानी से मिल जाते हैं जिनके साथ इत्मीनान से बैठकर सुख-दुख की बात की जा सके। वहाँ शहर जैसी आपाधापी नहीं। चौखट पर बैठ जाओ तो हर आने जाने वाले से ‘राम-राम’ होती रहती है।

गाँव में रिश्तेदारों के घर अम्माँ का आना- जाना होता रहता है और ज़रूरत पर मदद भी मिलती रहती है। बेटों की सिर्फ एक हिदायत है कि उनकी जानकारी के बिना किसी के कहने पर किसी कागज़ पर दस्तखत नहीं करना है। वजह यह कि ज़माना खराब है, किसी पर आँख मूँद कर भरोसा नहीं किया जा सकता। क्या पता कौन पीठ में छुरा भोंक दे।

ऐसा नहीं है कि अम्माँ बेटों के पास शहर जाती ही नहीं। दो बार बड़े बेटे के घर रही थीं, जब आँख का ऑपरेशन कराया। एक बार और जब आँगन में गिर गयी थीं और बाँह टूट गयी थी। इसके अलावा भी जब बेटों के घर में कोई ऐसा आयोजन हुआ जहाँ उनकी उपस्थिति ज़रूरी हो, तब भी वे पहुँचती रहीं। लेकिन रुकना ज़रूरत से ज़्यादा नहीं होता। अम्माँ की उम्र भी अब इतनी नहीं कि वे घर के कामों में कुछ उल्लेखनीय मदद कर सकें, इसलिए उन्हें रोकने का कोई मतलब नहीं।

बहुओं को अम्माँ का शहर में रहना इसलिए भी खलता है कि वे निःसंकोच पड़ोसियों के घरों में चली जाती हैं और फिर घंटों बैठक जमाये रहती हैं। उनकी आदत तफसील से परिवार और उसकी रिश्तेदारियों की जानकारी लेने की है। जब तक वे पड़ोस में रहती हैं तब तक बहुओं को तनाव रहता है कि वे जाने क्या पूछ रही होंगीं और अपने परिवार के बारे में जाने क्या-क्या बता रही होंगीं। अब सभ्य समाज में बहुत सी बातों पर चर्चा निषिद्ध होती है, जो अम्माँ को नहीं मालूम।

अम्माँ अमूमन अपनी दवा-दारू के पैसे बेटे-बहू को दे देती हैं। उन्होंने समझ लिया है कि खर्च न देने पर कई बार उनका इलाज टलता जाता है। पैसा दे देने पर इलाज तत्परता से होता है। बहुएँ थोड़ा ना-नुकुर के बाद पैसे ले लेती हैं। इससे उनकी देखभाल भी अच्छी हो जाती है।

खुशकिस्मती है कि ऐसी आकस्मिक बीमारियों या विपत्तियों को छोड़कर अम्माँ का स्वास्थ्य इस उम्र में भी ठीक-ठाक बना रहता है। गाँव की स्थिति यह है कि अचानक कोई विपत्ति आ जाए तो न तो कोई भरोसे मन्द डॉक्टर है, न कोई आवागमन का उपयोगी साधन। बेटे-बहुओं को खबर होते होते तक यमलोक का आधा सफर हो जाएगा।

हर गर्मी में बहुओं का गाँव का चक्कर ज़रूर लगता है। यह सास के प्रेम या उनकी फिक्र में नहीं होता, उसका उद्देश्य साल भर के लिए गल्ला-पानी ले जाना होता है। कुछ भी हो, चार छः दिन घर में चहल-पहल हो जाती है। घर बच्चों की आवाज़ों और उनकी क्रीड़ाओं से भर जाता है। अम्माँ व्यस्त और खुश हो जाती हैं। सब के जाने के बाद दो-तीन दिन तक उन्हें अकेलापन काटता है। फिर धीरे-धीरे खुद को सँभाल लेती हैं।

अम्माँ की उम्र अब कितनी हुई यह खुद अम्माँ को भी ठीक से नहीं मालूम। पूछने पर वे दूसरे रिश्तेदारों से अपनी उम्र की छोटाई बड़ाई बताने लगती हैं या अपने जन्म के आसपास हुई किसी महामारी या किसी अन्य घटना का बखान करने लगती हैं। फिर भी इतना तो निश्चित है कि अम्माँ की उम्र पचहत्तर के अंक को पार कर चुकी है। आगे जिसे जो जोड़ना है, जोड़ ले।

लेकिन अम्माँ की उम्र बढ़ने के साथ-साथ अब उनके बेटों को चिन्ता होने लगी है। अभी तक अम्माँ के लिहाज में चुप थे, लेकिन अब और चुप रहना मुश्किल हो रहा है। अम्माँ अब सयानी हैं, कभी भी ‘कुछ भी’ घट सकता है। अभी तक गाँव की ज़मीन का बँटवारा नहीं हुआ, न ही अम्माँ अपनी तरफ से बात करने की पहल करती हैं। वे तो ऐसे निश्चिंत हैं जैसे सब दिन इस घर में और इस धरती पर बनी रहेंगीं।

बड़ा बेटा कुछ ज़्यादा चिन्तित है क्योंकि उसे डर है कि अम्माँ के न रहने पर दोनों छोटे भाई बखेड़ा कर सकते हैं। कारण यह है कि दोनों छोटे भाइयों की तुलना में बड़े भाई की आर्थिक स्थिति ज़्यादा मजबूत है, इसलिए बाद में दोनों छोटे भाई उसके लिए मुसीबत खड़ी कर सकते हैं। एक चिन्ता यह है कि कहीं बहन भी अपना हक न जताने लगे। इसलिए अम्माँ के रहते सब निपट जाए तो ठीक रहेगा। उसे भरोसा है कि अम्माँ उसका नुकसान नहीं करेंगीं।

बेसब्री में अम्मा को संकेत देने का काम शुरू हो गया है। महेश ने गाँव में रिश्ते के एक चाचा से संपर्क साधा है कि अम्माँ को समझाया जाए कि वे अपनी स्थिति को समझें और सब बाँट-बूँट कर भगवान के भजन-कीर्तन में पूरी तरह समर्पित हो जाएँ।

एक दिन चाचा जी संकोच में खाँसते हुए आ गये। थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करने के बाद मतलब की बात पर आये। बोले, ‘भाभी, अब इस बोझ को आप अपने सिर से उतारिए। लड़कों के बीच में जमीन का बँटवारा कर दीजिए। अभी तो ठीक है, लेकिन आप के न रहने पर लड़कों के बीच में विवाद होगा। इसलिए अपने सामने सब निपटा कर फुरसत हो जाइए।’

अम्माँ सहमति में सिर हिलाती हैं, लेकिन उनकी समझ में नहीं आता कि उनके न रहने की बातें क्यों हो रही हैं। उनके हाथ-पाँव ठीक काम कर रहे हैं। बेटों पर निर्भर होने के बजाय वे उनकी मदद ही कर रही हैं, फिर ऐसी बातें क्यों? वे कोई निर्णय नहीं ले पातीं।

उधर समय गुज़रने के साथ साथ बेटों की बेसब्री बढ़ रही है। उन्हें लगता है अम्माँ खामखाँ टालमटोल कर रही हैं। वे बँटवारा कर दें, फिर भले ही पूर्ववत बेटों की ज़मीन की देखभाल करती रहें। घर के बारे में तो कोई झंझट नहीं है, वहाँ तो उन्हीं का राज है।

बहुएँ भी अब आने पर यही भुनभुनाती हैं —‘जिस दिन आप नहीं रहोगी, अम्माँ, उस दिन बहुत खेंचतान होगी। अच्छा होता अगर आप अपने सामने ही फैसला कर देतीं।’

अम्माँ को कोई तकलीफ नहीं, उनका सब काम ठीक चल रहा है, लेकिन अब हर महीने- दो महीने में किसी के द्वारा प्रेरित कोई शुभचिन्तक तंबाकू ठोकता उनके सामने आकर खड़ा हो जाता है— ‘आप तो हल्की हो जाओ अम्माँ। बेटों को बाँट कर मामला खतम करो। कल के दिन आपकी आँखें मुँद गयीं तो लड़के आपस में लड़ेंगे मरेंगे। काहे को देर कर रही हो?’

अम्माँ यह सब सुनकर परेशान हो जाती हैं। वे तो अपने पति की ज़मीन से अपनी गुज़र-बसर कर रही हैं, किसी से कुछ लेती देती नहीं, फिर ये सन्देश और संकेत बार-बार क्यों आते हैं? क्या वे ज़मीन सौंप कर किसी बेटे का कारिन्दा बनकर गाँव में रहें?

बेटों की बेसब्री बढ़ने के साथ उनका लिहाज छीज रहा है। अम्माँ पर दाहिने बायें से दबाव बनाया जा रहा है। हर दूसरे चौथे कोई कौवा मुंडेर पर चिल्लाने लगता है— ‘अरे सोचो, सोचो। तुम्हारे न रहने पर क्या होगा?’

एक दिन बड़ा बेटा आकर बैठ गया। बड़ा दयनीय चेहरा बनाकर बोला, ‘अम्माँ, मुझे ब्लड-प्रेशर की शिकायत है। यह ज़मीन का मामला निपट जाता तो अच्छा था। सोचने लगता हूँ तो ब्लड-प्रेशर बढ़ जाता है। आप नहीं होंगीं तो सब कैसे निपटेगा? मेरे खयाल से आप सब को बुला कर इस काम को निपटा दीजिए। ठीक समझें तो गाँव से एक दो सयानों को बैठाया जा सकता है।’

अम्माँ का जी बेज़ार रहने लगा है। कभी-कभी उन्हें लगता है वे कोई भूत-प्रेत हैं जो अकेला इस घर में वास कर रहा है। बेटे उन्हें अब जीवित नहीं मानते।

एक दिन मँझला बेटा बृजेश आ गया। वैसे ही थोड़ा मुँहफट है, फिर लगता है गाँव में कहीं थोड़ी बहुत पी कर आया था। बैठकर ताली मार कर हँसने लगा, बोला, ‘अम्माँ, तुम्हारी उम्र बढ़ने के साथ बड़े भैया की हालत खराब हो रही है। जमीन का बँटवारा कर दो, फिर जितने दिन मरजी हो जी लेना। अभी तो लोग तुम्हारी जिन्दगी का एक एक दिन गिन रहे हैं।’

अम्माँ को समझ में नहीं आया कि वे हँसें या रोयें।

अगली गर्मियों में तीनो बहुएँ आयीं तो शाम को अम्माँ को घेर कर बैठ गयीं। बड़ी बहू बड़े अपनत्व से बोली, ‘अम्माँ जी, कब तक यह बोझ ढोती रहोगी? अब आपकी उमर हुई। बेटों को अपने रहते दे-दिलाकर इस बोझ को उतार दीजिए।’

अम्माँ का मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया। तीखे स्वर में बोलीं, ‘जल्दी क्या है? मेरे मरने के बाद तो सब कुछ बेटों को मिलना ही है। मैं कौन सा संपत्ति को अपने ऊपर खर्च कर रही हूँ। साँप की तरह उसकी रक्षा ही तो कर रही हूँ। जैसे इतने दिन सबर किया है, थोड़ा और करो। भगवान से मेरे साथ प्रार्थना जरूर करो कि मुझे जल्दी से जल्दी उठाये।’

सुनकर बहुओं का मुंँह फूल गया। बड़ी बहू उठते उठते बोली, ‘त्रिश्ना नहीं जाती न। बुढ़ापे के साथ-साथ त्रिश्ना और बढ़ती जाती है।’

अम्माँ बैठीं बड़ी देर तक सोचती रहीं। बहुएँ नाराज हो गयी हैं। क्या गुस्से के मारे अगली गर्मियों में नहीं आयेंगीं? फिर वे यह  सोच कर निश्चिंत हो गयीं कि गल्ला लेने तो आयेंगीं ही। बिना मेहनत का माल भला कौन छोड़ सकता है?

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments