प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक गावव ग़ज़ल  – “जग तो मेला है…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #125 ☆  गजल – “जग तो मेला है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

अकेला चाहे भला हो आदमी संसार में

जिंदगी पर काटनी पड़ती सदा दो चार में।

 

कट के दुनियां से कहीं कटती नहीं हैं जिंदगी

सुख कहीं मिलता तो, मिलता है वो सबके प्यार में।

 

भुलाने की लाख कोई कोशिश करे पर हमेशा 

याद आते अपने हर एक तीज औ’ त्यौहार में।

 

जहाँ होते चार बरतन खनकते तो है कभी

अलग होते ही हैं सब रूचि सोच और विचारा में।

 

मन में जो भी पाल लेते मैल वे घुटते ही है

क्योंकि रहता नहीं स्थित भाव कोई बाजार में।

 

जो जहाँ जैसे भी हो सब खुश रहे फूलें-फलें

समय पर मिलते रहें, क्या रखा है तकरार में।

 

चार दिन की जिंदगी है, कुछ समय का साथ हैं

एक दिन खो जाना सबकों एक घने अंधियार में

 

है समझदारी यही, सबकों निभा सबसे निभें

जग तो मेला है जिसे उठ जाना है दिन चार में।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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