डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  व्यंग्य  ‘जानवरों की बेअदबी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 186 ☆

☆ व्यंग्य ☆ जानवरों की बेअदबी

कहीं पढ़ा कि एक राज्य में कुछ समझदार लोगों ने ‘हलाल मीट’ के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए माँग की कि बाज़ार में ‘हलाल मीट’ की जगह ‘झटका मीट’ ही बेचा जाना चाहिए। यानी जानवर को एक झटके में ही इस दुनिया से रुखसत किया जाए, वध के तरीके में कोई मज़हबी कर्मकांड न हो।

उल्लेखनीय है कि आदमी के जन्म से ही अनेक पशु-पक्षी और समुद्री-जीव उसके ज़ायके के लिए खुशी-खुशी अपनी जान की कुर्बानी देते रहे हैं। मनुष्य- जाति का इतिहास लिखते समय पशुओं की इस कुर्बानी को स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए।

सभी धर्मग्रंथ मानते हैं कि हर जीव का जन्म और मृत्यु पूर्वनियत है। शायद इसीलिए पशुओं का वध करते समय आदमी को हिचक नहीं होती। जब सब कुछ पूर्व निश्चित है तो आदमी को केवल ऊपर वाले की इच्छा की पूर्ति का निमित्त ही माना जा सकता है। इस हिसाब से देखें तो आदमी की हत्या पर मिलने वाला दंड भी अटपटा लगता है। कुछ लोग इतने ‘पशु-प्रेमी’ होते हैं कि, बिना माँस के, निवाला उनके हलक से नीचे नहीं उतरता।

ऊपर बताए गये वाकये में जब हल्ला- गुल्ला ज़्यादा बढ़ा तो अधिकारी हरकत में आये और हलाल और झटका के तरफदारों को अलग-अलग समझाइश देने की कोशिश शुरू हुई, लेकिन बहुत मगजमारी के बाद भी पशु-वध के किसी एक तरीके पर दोनों पक्षों की सहमति नहीं बन सकी। तभी एक अधिकारी, जिन्हें उनकी न्यायप्रियता और संवेदनशीलता के कारण सनकी माना जाता था, ने एक नूतन प्रस्ताव पेश किया। उन्होंने सुझाव रखा कि बेहतर होगा कि इस मामले पर प्रभावित पक्ष यानी मुर्गो और बकरों की रायशुमारी करा ली जाए कि वे किस तरीके से स्वर्ग जाना पसन्द करेंगे।

अधिकारी के इस प्रस्ताव पर सभी पक्षों की सहमति बन गयी और प्रस्ताव पेश करने वाले अधिकारी को ही रायशुमारी की ज़िम्मेदारी सौंप दी गयी। अधिकारी ने तुरन्त वोटिंग-मशीन का इन्तज़ाम किया जिस पर पाँव से बटन दबाकर अपनी पसन्द अंकित की जा सकती थी। तीन विकल्प रखे गए— झटका, हलाल और नोटा, यानी ‘इनमें से कोई नहीं’।

नगर के बकरों-मुर्गों को इकट्ठा करके उनका वोट डलवाया गया। जब परिणाम सामने आया तो सभी पक्ष ठगे से रह गये क्योंकि सभी पशुओं ने ‘नोटा’ का बटन दबाया था, यानी वे फिलहाल इस दुनिया से रुखसत नहीं होना चाहते थे।

देखकर अधिकारियों के मुँह का ज़ायका बिगड़ गया। ऐसी बेअदबी! दिस इज़ ओपिन डिफाएंस ऑफ अथॉरिटी। ‘हमने उन्हें अपनी बात रखने का मौका दिया और वे हमारा ज़ायका बिगाड़ने पर तुल गये! इतने दिन तक दाना-पानी देने का ये सिला!’ कुछ लोगों ने रायशुमारी कराने वाले अधिकारी की लानत-मलामत की क्योंकि उन्होंने ‘नोटा’ का विकल्प शामिल किया था।

अन्त में निष्कर्ष निकला कि अधिकारियों ने पशुओं को उनकी किस्मत का फैसला करने का मौका दिया, लेकिन उन्होंने उसका गलत फायदा उठाया। इसलिए इस मामले में आगे उनसे कोई राय न ली जाए। अब एक तीन-सदस्यीय समिति गठित की जाएगी जो दो महीने के भीतर मनुष्य-जाति के दोनों पक्षों से बात कर सहमति बनाने की कोशिश करेगी। तब तक पशुओं को रुखसत करने के लिए वर्तमान तरीके ही अपनाये  जाएंगे।

 © डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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