डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित प्रत्येक पात्रों के चरित्र को सजीव चित्रित करती कहानी  निमंत्रण। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 187 ☆

☆ कहानी ☆ निमंत्रण

(लेखक के कथा-संग्रह ‘जादू-टोना’ से)

रुकमनी चाची रोज़ शाम की तरह अपने दुआरे बैठीं नलके पर से पानी लेकर लौटतीं पड़ोसिनों से बतकहाव कर रही हैं। उनकी नातिनें दो-तीन बार पानी के बर्तन लेकर आ चुकी हैं। यह काम उन्हीं के जिम्मे है। रुकमनी चाची अब यह सब काम नहीं करतीं। बस इस टाइम दुआरे पर आकर जरूर बैठ जाती हैं ताकि पड़ोसिनों से आराम से बतकहाव हो सके। बात करने के लिए चटकती  जीभ को चैन मिल जाता है। अड़ोस- पड़ोस की सारी जानकारी वहीं बैठे-बैठे मिल जाती है।

लेकिन आज रुकमनी चाची का मन थिर नहीं है। बात सुनते सुनते मन भटक जाता है। बात का छोर टूट जाता है। फिर सुध लौटती है तो पूछती हैं, ‘हाँ, तो क्या बताया दमोह वाली के आदमी के बारे में? ज्यादा नसा-पत्ती करने लगा है? क्या कहें, सब बिगड़ती के लच्छन हैं।’

रुकमनी चाची की उद्विग्नता का कारण यह है कि दस-बारह दिन बाद उनकी भतीजी सुषमा के बड़े बेटे की शादी है, लेकिन उन्हें अभी तक कोई सूचना नहीं मिली है। सुषमा उनकी बड़ी बहन की बेटी है, जो अब नहीं हैं। सुषमा के पति का सिविल लाइंस में बड़ा बंगला है। वे एस.पी. के पद पर हैं। रुकमनी चाची लोगों को बताते नहीं थकतीं कि एस.पी. साहब उनके दामाद हैं, भले ही उनकी गाड़ी रुकमनी चाची के दरवाजे पर साल दो साल में कभी दिखायी पड़ती है। रुकमनी चाची पड़ोसियों को सफाई देती हैं— ‘पुलिस में हैं तो फुरसत कहाँ मिलती है? दिन रात की भागदौड़  है। अब ऐसे में सुसमा गिरस्ती सँभाले कि हमारे पास आकर बैठे।’

लेकिन जैसे जैसे दिन गुज़रते जाते हैं, उनकी बेचैनी बढ़ती जाती है। निमंत्रन अभी तक क्यों नहीं आया? नहीं बुलाएँगे क्या? सोचते सोचते हाथ का काम रुक जाता है। दरवाज़े पर कान लगा रहता है। कोई खटका होते ही पहुँचती हैं कि कोई निमंत्रन लेकर तो नहीं आया।

उन्हें पता है कि एस.पी. साहब और उनके   बेटे उनके परिवार को पसन्द नहीं करते। कल्चर का फर्क है, आर्थिक स्थिति का भी। कभी कोई अवसर-काज हुआ तो सुषमा अकेली आकर खानापूरी कर जाती है। एस.पी. साहब बड़ी मुश्किल से दर्शन देते हैं।

रुकमनी चाची के पति शमशेर सिंह लंबे समय तक एक पुराने जागीरदार के यहाँ ‘केयरटेकर’ थे। तब उनका रुतबा देखते बनता था। वैसे तो काली टोपी पहनते थे, लेकिन कभी-कभी तुर्रेदार साफा बाँधते थे। कभी कोई खास मौका हो तो ‘बिरजिस’ (ब्रीचेज़) पहनते थे, साथ में चमचमाते जूते। तब उनकी मूँछें हमेशा ग्यारह बज कर पाँच बजाती थीं। फिर धीरे-धीरे जागीरदार साहब की खुद की मूँछें ढीली हो गयीं और ‘केयरटेकर’ साहब की मूँछें सवा नौ से घटते-घटते सात-पच्चीस पर आ गयीं। पुरानी यादों के नाम पर अलमारी में रखी धुँधली तस्वीरें ही रह गयी हैं, जिनमें शमशेर सिंह पुराने जागीरदार साहब के साथ विभिन्न मुद्राओं में दिखायी पड़ते हैं।

शमशेर सिंह अच्छे दिनों में घर में अपना रौब गालिब करने में लगे रहे। बड़े लोगों की संगत में उन्होंने बड़े लोगों की बहुत सी आदतें ग्रहण कर ली थीं। परिवार पर हुकुम चलाना वे अपना अधिकार समझते थे। उनका सोचना था कि उनकी उपस्थिति में परिवार में अदब और कायदे का वातावरण होना चाहिए और फालतू की चूँ- चपड़ नहीं होना चाहिए। परिवार के लोग उनके सामने भीगी बिल्ली बने रहें तो उन्हें बड़ा सुख मिलता था। रोज़ शाम को वे अकेले या किसी मित्र के साथ बोतल खोल कर बैठ जाते थे और उस वक्त घरवालों का सिर्फ यह कर्तव्य होता था कि वे गरज कर जिस चीज़ की फरमाइश करें वह तुरन्त हाज़िर कर दी जाए। अपनी दुनिया में मस्त रहने के कारण उन्होंने कभी बच्चों की पढ़ाई- लिखाई की तरफ ध्यान नहीं दिया। अब दिन पलटने के साथ उनका रौब भरभरा गया था। परिवार के द्वारा उपेक्षित वे अपने कोने में मौन बैठे हुक्का गुड़गुड़ाते रहते थे।

परिवार में अपनी ही चलाने वाले शमशेर सिंह ने सात संतानें पैदा की थीं। उन्हें इस बात का गर्व था कि इनमें से छः लड़के थे, बस एक पता नहीं कैसे लड़की हो गयी। पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान न देने के कारण सब छोटी मोटी नौकरियाँ या काम कर अपना गुज़र कर रहे थे। लेकिन शमशेर सिंह को इसका कोई मलाल नहीं था। उनका दृढ़ मत था कि सब अपना अपना प्रारब्ध लिखा कर लाते हैं और जो कुछ होता है प्रारब्ध के अनुसार होता है। उसमें कोई रत्ती भर फेरबदल नहीं कर सकता।

अब जैसे-जैसे सुषमा के बेटे की शादी की तारीख नज़दीक आती जाती है, रुकमनी चाची की धुकुर-पुकुर बढ़ती जाती है। क्या सचमुच नहीं बुलाएँगे? वे जानती हैं कि एस.पी. साहब उनके नाम पर मुँह बिचकाते हैं। कहते हैं, ‘शी इज़ ए वेरी टॉकेटिव लेडी।’ उनके बेटे भी रुकमनी चाची से कन्नी काटते हैं। कारण यह है कि वे  कभी उनके घर जाती हैं तो दुनिया भर की रामायण लेकर बैठ जाती हैं। ऐसे लोगों के किस्से सुनाएँगीं जो मर-खप गये या जिन्हें कोई जानता नहीं। कोई रोग-दोष का ज़िक्र कर दे तो देसी नुस्खों से लेकर टोने-टोटके तक सब बता देंगीं। उनका टेप जो चालू होता है तो रुकने का नाम नहीं लेता। इसीलिए उनके पास बैठने वाले बिरले होते हैं। सब फटाफट पाँव छू कर दाहिने बायें हो जाते हैं। जो पाँव न छुए उसे रुकमनी चाची टेर कर बुलाती हैं और फिर पाँव आगे बढ़ा देती हैं।

रुकमनी चाची कई रिश्तेदारों को फोन करके पूछ चुकी हैं कि उनको निमंत्रन-पत्र मिला या नहीं। कोई कह देता है कि उसके पास भी नहीं पहुँचा तो उन्हें ढाढ़स हो जाता है। जब कोई बताता है कि उसके पास पहुँच गया तो उनका मन खिन्न हो जाता है। फिर बड़ी देर तक उनका मन किसी काम में नहीं लगता।

चैन नहीं पड़ता तो बेटों से पूछती हैं, ‘कहीं अरुन वरुन मिले क्या?’ अरुण वरुण सुषमा के बेटे हैं।

जवाब मिलता है, ‘नहीं मिले।’

चाची पूछती हैं, ‘कभी वहाँ जाना नहीं हुआ?’

बेटे कहते हैं, ‘किसलिए जाना है? वहाँ क्या काम?’

रुकमनी चाची चुप हो जाती हैं। बेटे सच कहते हैं। कोई और रिश्तेदार होता तो काम-धाम के लिए उन्हें बुला लेता, लेकिन एस.पी. साहब को आदमियों की क्या कमी? बिना बुलाये लोग दौड़ते फिर रहे होंगे।

रुकमनी चाची का मन मथता रहता है। ब्याह-शादी में नहीं जाएँगीं तो कैसे चलेगा? दूर-दूर के नाते-रिश्तेदार जुटेंगे। सब का हालचाल मिलेगा। एक बार बिछुड़े तो पता नहीं दुबारा मिलना हो या न हो। उन जैसे बहुत से पके आम हैं। कब टपक जाएँ पता नहीं। एक आदमी आएगा तो उससे दस आदमियों की खबर मिलेगी। लोग यहाँ तक आएँ और उनसे भेंट न हो, यह तो बहुत गलत बात होगी। लेकिन यह सुसमा मरी निमंत्रन- पत्र नहीं भेजेगी तो कैसे जाएँगीं?

बेटे उनकी हालत देखकर चुटकी लेते हैं— ‘नहीं आया न निमंत्रन पत्र? सुसमा बिटिया के बड़े गुन गाती रहती थीं।’

रुकमनी चाची आहत होकर कहती हैं, ‘नहीं बुलाते तो न बुलाएँ। हमें क्या फरक पड़ता है? वे पैसे वाले हैं तो अपने घर में बैठे रहें। घर के सयानों को नहीं बुलाएँगे तो चार आदमी उन्हीं को कहेंगे।’

लेकिन जब शादी के तीन चार दिन ही बचे तो रुकमनी चाची का धीरज टूट गया। एक दिन चुपचाप रिक्शा करके सुषमा के घर पहुँच गयीं। अन्दर पहुँचीं तो सुषमा ने पाँव छुए। चाची उदासीनता का अभिनय करके बोलीं, ‘इधर बजार गयी थी। बहुत दिन से तुम्हें देखा नहीं था। सोचा हाल-चाल पूछ लें।’

सुषमा बोली, ‘मौसी, शादी में सब लोग आइएगा।’

रुकमनी चाची व्यंग्य से बोलीं, ‘आ जाएँगे। निमंत्रन तो मिला नहीं।’

सुषमा का मुँह उतर गया। उसने छोटे बेटे वरुण को आवाज़ दी। वरुण ने रुकमनी चाची को देखकर दाँतों में जीभ दबायी।

सुषमा ने पूछा, ‘मौसी का कार्ड नहीं पहुँचाया?’

वरुण बोला, ‘आठ दस कार्ड रह गये हैं। उधर जाना नहीं हुआ। आज पहुँच जाएँगे।’

चाची उम्मीद से उसकी तरफ देखकर  बोलीं, ‘पक्का पहुँचाओगे या फिर भूल जाओगे?’

वरुण कान छू कर बोला, ‘आज पक्का। हंड्रेड परसेंट।’

रुकमनी चाची सुषमा से बोलीं, ‘मैं तो यहीं ले लेती, लेकिन घर में सब लोगों को अच्छा नहीं लगेगा।’

कार्ड पहुँचने का आश्वासन पाकर चाची खुश हो गयीं। चिन्ता मिट गयी। चलने लगीं तो एक बार फिर वरुण से बोलीं, ‘कितनी देर में आओगे?’

वरुण बोला, ‘आप चलिए। मैं पीछे-पीछे पहुँचता हूँ।’

रुकमनी चाची रिक्शे पर बैठ कर चल दीं। मन मगन था। अब वे कल्पना में डूबी थीं कि शादी में कौन-कौन मिलेगा और क्या-क्या बातें होंगी। बस एक चिन्ता उन्हें रह रह कर सता रही थी कि कहीं घर वालों को यह पता न लग जाए कि वे निमंत्रन-पत्र की जानकारी लेने सुषमा के घर पहुँची थीं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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