डॉ. मुक्ता
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोशिश, सत्य व विश्वास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 17८ ☆
☆ कोशिश, सत्य व विश्वास ☆
जब आप अपना दिन प्रारंभ करते हैं, तो यह तीन शब्द जेब में रखिए। कोशिश बेहतर भविष्य के लिए, सच अपने काम के साथ और विश्वास भगवान में रखिए; सफलता आपके कदमों तले होगी। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ बच्चन जी की यह पंक्तियां अत्यंत सार्थक हैं। जब तक आप नौका को जल में नहीं उतारेंगे, सागर से पार कैसे उतरेंगे? साहस, उत्साह व एकाग्रता से निरंतर अभ्यास करने से एक मूर्ख भी बुद्धिमान हो सकता है। इसलिए परिश्रम कीजिए, बीच राह थक कर मत बैठिए; आपका भविष्य निश्चित रूप से उज्ज्वल होगा। इसके साथ ही आवश्यकता है कि आप अपने काम को ईमानदारी से कीजिए; सत्य की राह पर चलते रहिए और राह में आने वाली बाधाओं का डटकर सामना कीजिए… क्योंकि बाधाएं वीरों का रास्ता कभी नहीं रोक सकतीं। जिनमें साहस व उत्साह है, उन्हें प्रलोभन भी पथ-विचलित नहीं कर सकते। इतना ही नहीं, बहुत से लोग आपको आकर्षित कर भटकाने का प्रयास करेंगे, परंतु आप को रुकना नहीं है, चलते रहना है, क्योंकि चलना ही ज़िंदगी है। ‘जीवन चलने का नाम/ चलते रहो सुबहोशाम/ यह रास्ता कट जाएगा मितरा/ यह बादल छंट जाएगा मितरा।’ समय सदैव एक सा नहीं रहता; निरंतर गतिशील रहता है, चलता रहता है। जैसे रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के बाद पूनम व पतझड़ के पश्चात् वसंत का आगमन निश्चित है; उसी प्रकार दु:ख के पश्चात् सुख का आना भी अवश्यंभावी है। विपत्ति का समय सदा नहीं रहता। समय परिवर्तनशील है, निरंतर अबाध गति से बहता रहता है। सो! अगली सांस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है।
‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ अर्थात् ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ नश्वर है। इसलिए मानव को सांसारिक माया-मोह के बंधनों में उलझना नहीं चाहिए, क्योंकि माया के कारण यह संसार हमें सत्य भासता है। वास्तव में इसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इसलिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में उलझना कारग़र नहीं है, क्योंकि यह अवरोधक मानव को अपनी मंज़िल तक पहुंचने नहीं देते।
विश्वास मानव की सर्वश्रेष्ठ धरोहर है। यदि आप खुद पर भरोसा व प्रभु में आस्था रखेंगे, तो सफलता आपके कदम चूमेगी। सो! प्रभु-सत्ता में विश्वास बनाए रखिए, क्योंकि जब तक उसकी करुणा-कृपा बनी रहती है, मानव निरंतर उन्नति के शिखर पर चढ़ता जाता है। कबीरदास जी के शब्दों में ‘बाल न बांका हो सके, चाहे जग बैरी होय’ अर्थात् कोई उसे लेशमात्र हानि भी नहीं पहुंचा सकता। इसलिए प्रभु में आस्था रखते हुए निष्काम कर्म करते रहिए, आपको मंज़िल अवश्य प्राप्त होगी। भरोसा व आशीर्वाद भले ही दिखाई नहीं देते, परंतु असंभव को संभव बनाने का सामर्थ्य रखते हैं। इससे सिद्ध होता है कि यदि आपमें श्रद्धा व अगाध विश्वास है, तो आप धन्ना भक्त की भांति पत्थर से भी भगवान को प्रकट कर सकते हैं। सो! आस्था व विश्वास रखिए क्योंकि संदेह, संशय व शक़ आपको विचलित करते हैं, भटकाते हैं। इसलिए मानव को अहं व वहम दोनों से बचने की सीख दी गयी है, क्योंकि यह अहं की पोषक हैं और मानव-मात्र के लिए घातक हैं।
संपन्नता मन की अच्छी होती है, धन की नहीं, क्योंकि धन की संपन्नता अहं को जन्म देती है और मन की संपन्नता संस्कार को। धन, संपत्ति, सत्ता और शरीर सदा साथ नहीं देते, परंतु समझदारी व सच्चे संबंध सदा साथ देते हैं। सो! इनसे प्रभावित हो सच्चे संबंधों पर कभी शंका मत कीजिए। समय के साथ यह सब बदलते रहते हैं, क्योंकि वे सब किसी की मिल्कियत नहीं और न ही सदा साथ रहने वाले हैं। मानव शरीर क्षणभंगुर है और दिन-प्रतिदिन इसका क्षय होता रहता है। परंतु यदि मानव समझदारी से काम लेता है, तो संबंधों पर आंच नहीं आती। सच्चे मित्र सदैव आपके साथ रहते हैं। इसलिए संबंधों को सदैव धरोहर-सम सहेज-संजो कर रखिए।
संसार में आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत है, शेष सब मिथ्या है। है इसलिए हर पल प्रभु का नाम- स्मरण कीजिए; एक सांस भी बिना सिमरन के व्यर्थ न जाने दीजिए। इंसान खाली हाथ आया है और खाली हाथ उसे इस जहान से लौट जाना है। हां! केवल नाम-स्मरण की दौलत ही उसके साथ जाती है। इसलिए मालिक से यही अरदास की जाती है कि ‘शुभ कर्मण से कबहुं ना टरौं’ अर्थात् मैं सदैव सत्कर्म करता रहूं। सो! धन-संग्रह मत कीजिए, क्योंकि यह मानव में अहंनिष्ठता का भाव पोषित करता है और मन की संपन्नता उसे सु-संस्कारों से पोषित करती है। यह मानव को फ़र्श से अर्श पर पहुंचा देते हैं। जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है, ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए। दूसरों से परिवर्तन की आशा करने से बेहतर है, खुद में बदलाव लाना। ‘दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत करो; आत्म-सम्मान बनाए रखो और चले आओ’–स्वामी विवेकानंद जी की यह उक्ति हमें मूल्यों से समझौता न करने की सीख देती है, क्योंकि उस स्थिति में आपको आत्म-सम्मान दांव पर नहीं लगाना पड़ता। अच्छा स्वभाव, अच्छी समझ, अध्यात्म मार्ग व सच्ची भावना जीवन में सदा साथ देते हैं। इसलिए मानव के लिए सत्मार्ग पर चलना व स्नेह, प्रेम, करुणा, त्याग, सहनशीलता, सहानुभूति आदि गुणों को जीवन में धारण करना श्रेयस्कर है। यह मानव के सच्चे साथी हैं, जो कभी धोखा नहीं देते।
संसार में कुछ लोग बिना रिश्ते के रिश्ते निभाते हैं, शायद वे ही सच्चे दोस्त कहलाते हैं और वे कभी धोखा नहीं देते। सो! दूसरों की खुशी में खुश रहने का हुनर सीखें। जो यह हुनर सीख जाता है, कभी दु:खी नहीं होता। सो! अपने दिल में जो है, उसे कहने का साहस और दूसरे के दिल में जो है, उसे समझने की कला यदि इंसान सीख लेता है, तो रिश्ते कभी टूटते नहीं। कलाम जी के शब्दों में ‘एक सच्चा दोस्त वह होता है, जो तब तक आपके पास चलकर आए, जब सारी दुनिया आप को अकेला छोड़ कर चली जाए।’ सब आप के भीतर है। प्रतीक्षा मत करें, कोई तुम्हारे जीवन को रोशन करने नहीं आयेगा। आग जलाने के लिए माचिस की तीलियां तुम्हारे पास हैं। आत्मविश्वास रखो, कोशिश करो और अपनी कश्ती को लहरों के सहारे छोड़ दीजिए, क्योंकि सागर से पार उतरने के लिए नौका को जल में उतारना ज़रूरी है, अन्यथा कबीरदास जी की तरह ‘मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ’ उस स्थिति में आप किनारे पर बैठे रहेंगे। जीवन के हर क्षेत्र में मानव को आपदाओं का सामना करने के लिए जूझना पड़ता है। बिना प्रयास के सफलता आपसे कोसों दूर रहेगी। संसार में सबसे बहुमूल्य धन बुद्धिमत्ता और सबसे मज़बूत औज़ार धैर्य है और सबसे अच्छी सुरक्षा, विश्वास व सबसे अच्छी दवा हंसी है और यह सब ही मुफ्त में मिलती हैं। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है तथा व्यवहार से सिद्ध होती है। सुखी रहने के तीन उपाय हैं, शुक्राना, मुस्कुराना और किसी का दिल न दु:खाना। अंत में मैं कहना चाहूंगी कि सम्मान व सब्र ऐसे दो तोहफ़े हैं, यदि देने लग जाएं, तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। ‘अहसासों की नमी ज़रूरी है हर रिश्ते में/ रेत यदि सूखी हो, तो हाथ से फिसल जाती है।’ इसलिए संवेदनशील बने रहिए और सुखी बने रहने के लिए अपनी आशाओं, आकांक्षाओं, आवश्यकताओं व अपेक्षाओं को सीमित कर लीजिए…जीवन स्वतः सुचारु रुप से चलता रहेगा।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी
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