श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “गौरैया…”।)
जय प्रकाश के नवगीत # 06 ☆ गौरैया… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
कहती है गौरैया
आँगन हुए प्रदूषित
मैं क्यों आऊँ द्वार तुम्हारे।
जहाँ-तहाँ बैठाए पहरा
रोते हो रोना
नहीं कहीं खाली छोड़ा है
कोई भी कोना
अपनी मर्ज़ी के
मालिक हैं यह कहना
बैठे बंद किए गलियारे ।
कभी फुदकती घर के भीतर
कभी खिड़कियों पर
कभी किताबों पर मटकाती
आँख झिड़कियों पर
बनकर भोली उड़े
फुर्र से जब चिचियाकर
फिर बतलाती दोष हमारे।
देख हमे फुरसत में अपना
नीड़ सँवारे गुपचुप
चोंच दबाए तिनका रखती
रोशनदान में छुप-छुप
भरे सकोरे पर हक
जतलाती है हरदम
रोज जगाती है भिनसारे।
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© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)
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