श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “बेघर ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 15 ☆
☆ लघुकथा 🏚️ बेघर 🏚️☆
अपनी मां के साथ वेदिका एक किराए के मकान में रहती थी। मां और बिटिया की कमजोरी को देखते हुए हर जगह से उन्हें निकाल दिया जाता था और फिर दूसरे किराए के मकान में, झुग्गी झोपड़ी बनाकर रहना पड़ता था।
बचपन उसका कैसे बीता उसे ठीक से याद नहीं। थोड़ा संभलने पर समझ में आ गया उसे कि सारे रिश्ते नाते केवल पैसों का खेल होता है। पिताजी की मृत्यु के बाद कोई भी रिश्तेदार यह पूछने नहीं आया कि तुम मां बेटी कैसे अपना गुजारा करती हो या फिर किसी चीज की आवश्यकता को हम पूरा कर सकते हैं क्या? किसी तरह से वेदिका ने दसवीं की पढ़ाई कर ली गणित में कंप्यूटर जैसा दिमाग पाई थी।
सिटी के एक किराने दुकान पर हिसाब किताब, समान का लेनदेन के लिए नौकरी करने लगी।
धीरे-धीरे यह यौवन की दहलीज चढ़ते जा रही थी। दुकानदार भी देख रहा कि वेदिका के समान लेनदेन से उसकी दुकान पर बहुत भीड़ होने लगी है। उसने एक दिन वेदिका से कहा.. अब तुम्हें कुछ और काम कर लेना चाहिए।
वेदिका इन बातों से अनजान दो-तीन वर्षों से उसके यहां काम कर रही थीं। उसने सोचा सेठ जी मुझे कुछ अच्छा काम करने के लिए कह रहे होंगे। उसने कहा ठीक है सेठ जी जैसा आप उचित समझे परंतु मुझे इस जोड़ घटाव हिसाब किताब में बहुत अच्छा लगता है। मुझे यही रहने दीजिए। सेठ जी ने कहा एक बार काम देख लो बाकी तुम्हें भी अच्छा लगेगा। मेरे यहां भी काम करते रहना। तुम्हारे लिए रहने का ठिकाना भी बन जाएगा और तुम बेघर होने से बच जाओगी। आराम से गुजर बसर करोगी अपनी माँ के साथ।
वेदिका उस जगह पर पहुंच गई। जहाँ सेठ जी ने बुलाया था। घर तो बड़ा खूबसूरत था।
सभी सुख-सुविधाओं का सामान दिख रहा था। सेठ जी के साथ चार व्यक्ति और भी बैठे हुए थे। जो देखने में अच्छे नहीं लग रहे थे परंतु वेदिका ने सोचा मुझे इससे क्या करना है मुझे तो अपना काम करना है। तभी सेठ ने कहा.. वही वेदिका है जो अब आप लोगों के साथ काम करेगी। सेठ के हाव भाव को देखकर वेदिका को अच्छा नहीं लगा। वेदिका ने कहा मुझे काम क्या करना है। सभी सेठ ने बाहर निकलते हुए कहा.. बाकी बातें अब यह बता देंगे।
वेदिका को समझते देर नहीं लगी कि वह बिक चुकी है। उसने बहुत ही धैर्य से काम की और बोली मैं अपना कुछ सामान बाहर छोड़ कर आ गई हूं। लेकर आती हूं। जैसे ही वह बाहर निकलना चाहा। किसी ने हाथ पकड़ापरंतु वेदिका की चुन्नी हाथ में आई।
और वेदिका दौड़ते हुए मकान से बाहर निकल चुकी थी। दौड़ते दौड़ते माँ के पास आकर आँचल में छुप गई माँ को समझते देर न लगी। वह वेदिका के सिर पर हाथ रखते हुए बोली बेटी हम बेघर ही सही बेआबरू नहीं है।
चल कहीं और चलते हैं यहां से दाना पानी उठ चुका है। वेदिका ने देखा माँ की कमजोर आंखों में एक अजीब सी चमक उठी है और मानों कह रही हो अभी तुम्हारी माँ का आँचल है तुम बेघर नहीं हुई हो।
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈