श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 70 – किस्साये तालघाट – भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
समय की गति और निर्ममता का मुकाबला किसी से नहीं किया जा सकता. समय के चक्र में कब 25 वर्ष बीत गये पता ही नहीं चला. अभय कुमार के जीवन से उनकी पहली ब्रांच और उसके उस समय के शाखा प्रबंधक कभी भी दूर नहीं हुये, फुरसत के हर पलों में हमेशा मौजूद रहे. उन यादों को, उस गुरुता को और उस प्रेरणादायक प्रशिक्षण को भुलाना असंभव था. समय के साथ प्रगति के सोपान चढ़ते हुये और अपने गुरु को तालघाट शाखा से ही ट्रेनी ऑफिसर बन कर अपने कैरियर का सफर शुरू कर, आज अभय कुमार उस प्रदेश के राजधानी स्थित प्रधान कार्यालय में महाप्रबंधक के पद पर पदस्थ थे जिस प्रदेश के निवासियों का श्रेष्ठिभाव आज भी कायम था. हालांकि दोनों पड़ोसी प्रदेशों के राज्यपथ अब समान रूप से विस्तृत और सपाट थे इन पथों पर एयर प्लेन की लेंडिंग का दावा दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री तालठोक कर किया करते थे जबकि सरकारें एक ही दल की जनशक्ति से बनी थीं. प्रदेशों के निवासियों में श्रेष्ठता और हीनता का द्वंद आज भी जारी था और लगता है हमेशा ही जारी रहेगा.
पर अभय कुमार इन सबसे दूर थे क्योंकि उनका मूल प्रदेश, प्रेरणादायक प्रदेश और वर्तमान प्रदेश अलग अलग था. उनकी नजरों में सब बराबर थे पर सर्विस और कैरियर के हिसाब से पहला प्यार तालघाट से जुड़ा प्रदेश ही था जहाँ उनके कैरियर ने अपनी गरुण की उड़ान पायी थी. आज वो जिस नगर में आये थे, वहाँ से तालघाट सौ कि. मी. से भी कम दूरी पर था. सुबह सुबह जैसे ही राजधानी वापस जाने के लिए कार म़े बैठे, रास्ते में दूरीमापक बोर्ड पर नजर पड़ी जो यात्रियों को सूरक्षित वापसी और फिर वापस आने का निमंत्रण दे रहा था और दूसरे प्रदेश स्थित नगरों की दूरी भी संकेत कर रहा था. अचानक ही बिना किसी पूर्व योजना के सामने की सीट पर बैठे अपने निजी सचिव को निर्देश दिया “तालघाट की ओर चलिए “आगे बैठे निजी सचिव और ड्राइवर दोनों ही चौंक गये क्योंकि ये विजिट प्रोग्राम में नहीं था. “सर, तालघाट शाखा हमारी ब्रांच नहीं है. ” उनके निजी सचिव ने कहा. ‘ पर ये मेरी पहली ब्रांच थी’ कुयें की गहराई से आती आवाज से फ्रंट सीट के यात्री चकित थे और स्तब्ध भी. पर वही हुआ जो आदेश था और लगभग एक घंटे बाद उनकी कार बैंक की तालघाट शाखा के सामने खड़ी थी.
शाखा अपने पुराने परिसर से शिफ्ट होकर नये और विशाल तथा आधुनिक परिसर में आ गई थी और शाखा और प्रबंधन का लेवल अपग्रेड होकर स्केल फोर हो चुका था. अब यहाँ शाखाप्रबंधक नहीं पाये जाते और मुख्य प्रबंधक कक्ष में लगी सूची में भी इतने पुराने वक्त के शाखाप्रबंधक का नाम नहीं था. शाखा का पुराना परिसर और शाखा प्रबंधक निवास जिनसे अभय कुमार जी की यादें जुड़ी थीं, अब वेयर हाऊस में तब्दील हो चुके थे. वो बीते हुये पल, वो उनके गुरु सदृश्य शाखाप्रबंधक का शून्य में मिल जाना, प्रशिक्षण और बैंकिंग के काम सीखने में गुजरा हुआ वक्त, सब कुछ निर्मम शून्य में विलीन हो चुके थे. बीते वक्त के स्मारक अब थे नहीं जिन्हें छूकर वे उस दौर को फिर से पाने की कोशिश करने के लिये आये थे.
शाखा के वर्तमान परिसर में विराजित मुख्य प्रबंधक से औपचारिक और संस्थागत अनौपचारिक चर्चा संपन्न कर और पेश किये गये स्नेक्स को संक्षिप्त और औपचारिक रूप से ग्रहण कर उन्होंने अपने वर्तमान की ओर प्रस्थान किया. मन में खीर की मिठास और मृदुलता न मिल पाने की टीस, पीड़ा दे रही थी. अतीत हमें सुनहरा लगता है उस वक्त जब हम ऊपर वर्तमान में उड़ रहे होते हैं पर नीचे पहुंचने पर उसे ढूंढना संभव नहीं होता क्योंकि अतीत की कोई जमीन नहीं होती. ये सिर्फ उड़ान भरने वालों का लांचिंग पैड होता है और इस लांचिंग के सपोर्ट धीरे धीरे विलुप्त होते जाते हैं.
“दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन पर वो मिलते नहीं क्योंकि जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते” निर्मम वक्त उन्हें अपनी आगोश में समेटकर, हमारे वर्तमान से बहुत दूर विलुप्त हो जाता है.
– समाप्त –
नोट : किस्साये तालघाट यहीं समाप्त होता है. अपडाउनर्स और बहुत से ब्रेक कभी खत्म नहीं होते, रूप बदलते रहते हैं. इनके बीच ही कुछ “अभय कुमार”आते हैं जो एक खुशनुमा एहसास होते हैं और यह भी जताते हैं” कि उम्मीद कभी नाउम्मीदी से परास्त नहीं होती”. आशा है आपको यह कथा पसंद आई होगी. इस कथा में लगभग 80% याने काफी कुछ सच्चा घटित हुआ भी है जिसे 20% कल्पना के फेविकॉल से जुड़कर यह किस्साये तालघाट बनी है. धन्यवाद!!!
© अरुण श्रीवास्तव
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈