श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “इतिहास का सर्वोत्तम सच।)

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 24 ☆

☆ इतिहास का सर्वोत्तम सच

 

भगवान ब्रह्मा ने अपने मस्तिष्क की सिर्फ एक इच्छा से चार कुमार (‘कु’ का अर्थ है ‘कौन’ और ‘मार’ का अर्थ है ‘मृत्यु’, तो कुमार का अर्थ है कि उसे कौन मार सकता है ? अथार्त कोई नहीं । इसलिए कुमार का अर्थ है मृत्यु से परे) मानस  (मन की इच्छा से निर्मित)पुत्रों को पैदा किया।उनके नाम सनक (अर्थ : प्राचीन), सनन्दन (अर्थ : आनंदमय), सनातन (अर्थ : अनंत, जिसकी कोई शुरुवात या अंत ना हो) और सनत (भगवान ब्रह्मा, शाश्वत, एक संरक्षक) थे।जब चार कुमार अस्तित्व में आये, तो वे सभी शुद्ध थे। उनके पास गर्व, क्रोध, लगाव, वासना, भौतिक इच्छा (अहंकर, क्रोध, मोह, कार्य , लोभ) जैसे नकारात्मक गुणों का कोई संकेत तक नहीं था। भगवान ब्रह्मा ने इन चारों को ब्रह्मांड बनाने में सहायता करने के लिए बनाया था, लेकिन कुमारों को कुछ भी बनाना नहीं आता था और उन्होंने खुद को भगवान और ब्रह्मचर्य के प्रति समर्पित कर दिया। उन्होंने ब्रह्मा जी से हमेशा पाँच वर्षीय बच्चे बने रहने के वरदान के लिए अनुरोध किया, क्योंकि पाँच वर्षीय बच्चे के मन में कोई नकारात्मक विचार नहीं आ सकता है। तो वे हमेशा पाँच साल के बच्चे की तरह ही लगते थे ।

जय (अर्थ : जीत, आम तौर पर शारीरिक जीत लेकिन हमेशा नहीं) और विजय (अर्थ: जीत, आम तौर पर मस्तिष्क  की जीत, लेकिन हमेशा नहीं) वैकुंठ के द्वारपाल थे। एक बार उन्होंने वैकुंठ के द्वार पर कुमारों को बच्चे समझ कर रोक दिया। उन्होंने कुमारों को बताया कि श्री विष्णु इस समय आराम कर रहे हैं और वे अभी उनके दर्शन नहीं कर सकते हैं।

सनातन कुमार ने उत्तर दिया, “भगवान अपने भक्तों से प्यार करते हैं और हमेशा उनके लिए उपलब्ध रहते हैं। आपको हमे हमारे प्रिय भगवान के दर्शन करने से रोकने का कोई अधिकार नहीं है” लेकिन जय और विजय उनकी बातों को समझ नहीं पाए और लंबे समय तक कुमारों से बहस करते रहे। यद्यपि कुमार बहुत शुद्ध थे, लेकिन भगवान की योजना के अनुसार अपने द्वारपालों को एक सबक सिखाने और ब्रह्मांड के विकास के लिए, उन्होंने कुमारों के शुद्ध दिल में क्रोध उत्पन्न कर दिया। गुस्से में कुमारों ने दोनों द्वारपालों जय और विजय को शाप दिया, जिससे की वह अपनी दिव्यता को छोड़ सकें और पृथ्वी पर प्राणियों के रूप में पैदा हो सकें और वहाँ रह सकें।

जब जय और विजय को वैकुंठ के प्रवेश द्वार पर कुमारों ने शाप दिया, तो भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हुए और द्वारपालों ने विष्णु से कुमारों द्वारा दिए गए अभिशाप को हटाने का अनुरोध किया। विष्णु जी ने कहा कि कुमारों के अभिशाप को वापस नहीं किया जा सकता है। इसके बजाय, वह जय और विजय को दो विकल्प देते हैं। पहला विकल्प पृथ्वी पर सात जन्म विष्णु के भक्त के रूप में लेना है, जबकि दूसरा तीन जन्म विष्णु के दुश्मनों के रूप में लेना है।

इन वाक्यों में से किसी एक पूर्ण करने के बाद ही वे वैकुंठ में अपने पद को पुनः प्राप्त कर सकते हैं और भगवान के साथ स्थायी रूप से रह सकते हैं। जय और विजय सात जन्मों के लिए भगवान विष्णु से दूर रहने का विचार सोच भी नहीं सकते थे तो वे तीन जन्मों तक भगवान विष्णु के दुश्मन बनने के दूसरे विकल्प के लिए सहमत हो गए।

भगवान विष्णु के दुश्मन के रूप में पहले जन्म में, जय और विजय सत्य युग में हिरण्याक्ष (अर्थ : स्वर्ण की आँखों वाला, सोने की धुरी) और हिरण्यकशिपु (अर्थ : सोने में पहने हुए) के रूप में पैदा हुए ।  दैत्यों के आदिपुरुष कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सकेगा न रात्रि  में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से उसके प्राणों को कोई डर रहेगा। इस वरदान ने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें और उसकी पूजा करें। उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं प्रताड़ना के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ पर होलिका जलकर राख हो गई। अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आये । वे खंभे से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेश द्वार की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात्रि, आधा मनुष्य, आधा पशु जो न नर था न पशु ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे तेज़ नाखूनों से जो न अस्त्र थे न शस्त्र, मार डाला। इस प्रकार हिरण्यकश्यप अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण भयानक अंत को प्राप्त हुआ। हिरण्याक्ष का वध वाराह अवतारी विष्णु ने किया था। वह हिरण्यकशिपु का छोटा भाई था। हिरण्याक्ष माता धरती को रसातल में ले गया था जिसकी रक्षा के लिए आदि नारायण भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लिया, कहते हैं वाराह अवतार का जन्म ब्रह्मा जी के नाक से हुआ था । कुछ मान्यताओं के अनुसार यह भी कहा जाता है कि हिरण्याक्ष और वाराह अवतार में कई वर्षों तक युद्ध चला । क्योंकि जो राक्षस स्वयं धरती को रसातल में ले जा सकता है आप सोचिए उसकी शक्ति कितनी होगी ? फिर वाराह अवतार के द्वारा मारे जाने वाले थप्पड़ की आवाज के द्वारा हिरण्याक्ष का वध हुआ ।

अगले त्रेता युग में, जय और विजय रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए, और भगवान विष्णु ने भगवान राम अवतार के रूप में उनका वध किया।

द्वापर युग के अंत में, जय और विजय शिशुपाल (अर्थ : बच्चे का संरक्षक) और दन्तवक्र (अर्थ : कुटिल दांत) के रूप में अपने तीसरे जन्म में उत्पन्न हुए। दन्तवक्र, शिशुपाल के मित्र जरासंध (अर्थ : थोड़ा सा संदेह) और भगवान कृष्ण के दुश्मन थे। जिनका वध भगवान विष्णु के कृष्ण अवतार ने किया ।

 

© आशीष कुमार  

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments