श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक अति सुंदर व्यंग्य – “धनिया जैसे संगी साथी”।)
☆ व्यंग्य – धनिया जैसे संगी साथी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
हमारे साथ एक भैया जी काम करते थे सब लोग उन्हें ‘हरी धनिया’ कहते थे, उन्हें पता ही नहीं होता है कि शाखा में क्या चल रहा है। हर काम को टालने की आदत,और जब काम सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता तो उनके अंदर श्रेय लेने की हड़बड़ी मच जाती। बाॅस के केबिन जाकर मक्खन लगाते हुए कहते इतनी आसानी से सब काम बढ़िया निपट गया। साथ वाले मंद मंद मुस्कुराते, और कहते ‘हरी धनिया’ में यही तो खासियत होती है कि सब्जी बन जाने के बाद उसे परोसने के समय डाला जाता है,और फिर सब्जी के सारे स्वाद का श्रेय उसे मिल जाता है। एक दिन बाॅस ने हमसे पूछ लिया कि तुम्हारे साथी को ‘हरी धनिया’ कहकर सब लोग क्यों चिढ़ाते हैं, तो हमने बाॅस को सब्जी बनने के बाद हरी धनिया का रोल समझाया तो साहब ने जोरदार ठहाका लगाया, और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। फिर धनिया महराज ने उन्हें जूता सुंघा कर कुर्सी में बैठाया।
एक दूसरी शाखा में एक चतुरा मिला। केवल नाम के लिए चुटकी भर काम में हाथ डालता था और साहब के हाथ में चाटुकारिता की हींग लगाकर गोपनीय रिपोर्ट में सबसे ज्यादा अंक प्राप्त कर लेता था।
अपन तो हर शाखा में अदरक की तरह कूटे जाते थे और जब शाखा की रेटिंग सुधर जाती या बाॅस का प्रमोशन हो जाता तो अपन को चाय जैसे छानकर बाहर ट्रान्सफर कर दिया जाता। अपनी ईमानदारी के कारण हम न हरी धनिया बन पाए, न हींग बने, न टमाटर…
© जय प्रकाश पाण्डेय
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈