श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 75 – पानीपत… भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
हमारे मुख्य प्रबंधक जी विक्रमादित्य के सिंहासन सदृश्य मुख्य प्रबंधक कक्ष में स्थापित सिंहासन पर बत्तीस पुतलों की शंकास्पद नजरों को उपेक्षित कर विराजमान हो गये. उनका ताजा ताजा प्रमोशन उन्हें टेम्प्रेरी अतिरिक्त आत्मविश्वास भी दे रहा था और आत्मप्रवंचना भी. उनकी यह सोच कि तुम, याने पुतले, बत्तीस हैं तो क्या हम तो “आठ अठैंया चौंसठ” वाले राजा हैं. इस आठ अठैंया चौंसठ का फारमूला उन कैडरलैस जवानों के लिये हैं जिनका हर आठ साल में प्रमोशन सुनिश्चित रहता है. आठ साल का अंतराल, ये क्रास होने नहीं देते और इनका लक्ष्य और सफर हमेशा सहायक से सहायक महाप्रबंधक की मंजिल तक पहुंचने का होता है. तो इनके पास अभी बहुत समय था आखिरी मंजिल तक पहुंचने का. जो पास में नहीं था या नहीं थी वह थी मुखरता. सिंहासन की प्राथमिक चुनिंदा शर्तों में से एक मुखर होना भी आवश्यक होता है. अगर आप अपनी खुशी, अपना दुख, अपना गुस्सा, अपनी निराशा, अपनी अपेक्षायें प्रभावी तरीके से अभिव्यक्त नहीं कर पाते तो जाहिर है कि टीम के साथ कम्युनिकेशन कैसे होगा. फिर टीम मेंबर मुखर होंगे और अपनी अपेक्षायें, अपनी फरमाइशें, अपनी तकलीफें, टीम लीडर के ऊपर थोपेंगे. जब आप खामोश होते हैं तो ये खामोशी आपसे आपके कंधों की उपयोगिता, आपकी आंखों की अभिव्यक्ति भी छीन लेती है. हर टीमलीडर के कंधो की उपयोगिता, टीम को भावुकता के क्षणों में, निराशा के लम्हों में महसूस होती है.
अभिनेता संजीव कुमार और अभिनेत्री जया भादुड़ी बहुत सशक्त अभिनेता थे जो अपनी भावप्रवण आंखों से फिल्म “परिचय” के चुनिंदा दृश्य और एक पूरी फिल्म “कोशिश” सजीव कर सके. उनकी बोलती आंखों ने संवाद के बिना ही संवेदनशीलता और कम्युनिकेशन की उस ऊंचाई को स्पर्श किया जिसे दोहराना नामुमकिन सा ही लगता है. पर सामान्यत: ये गुण हर किसी में नहीं होता और वैसे भी बात सिर्फ तीन घंटे की फिल्म की नहीं होता. ये पूरी जीवन शैली, पूरे व्यक्तित्व की होती है. तो बात जब राजा या लीडर के पद पर काम करने की हो तो मुखरता की उपेक्षा नहीं की जा सकती. हमारे ग्रुप में भी बहुत सारे मान्यवर सदस्य हैं जिन्होंने प्रबंधन और संघ के महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को वहन किया है. वे इस मुखरता को बहुत अच्छे से जानते होंगे. ये मुखरता, कुरुक्षेत्र के अर्जुन के महत्त्वपूर्ण अस्त्रों में से एक के समान वांछित होती है. इसे चालू भाषा में कहना हो तो ऐसे भी कहा जा सकता है कि “आप कुछ बोलो तो सही “: ‘यस सर यस सर’ कहने वाले तो आपके चारों तरफ मौके की तलाश में उम्मीद लगा कर बैठे हैं या सही शब्दों में खड़े हैं. अगर मुख्य प्रबंधक जी आप नहीं बोल पाते तो फिर ये लोग किसी दूसरे को ढूंढेंगे जो कुछ बोले तो ये “यस सर यस सर” कह पायें. इसके अलावा भी हम लोगों में यह लोकोक्ति बहुत प्रसिद्ध है कि “बच्चा अगर रोयेगा नहीं तो मां तो दूध भी नहीं पिलायेगी. बैंक की भाषा में अगर कहा जाये तो शाखा के प्रबंधक या मुख्य प्रबंधक जब तक रोयेंगे नहीं, सॉरी जब तक कुछ मांगेगे नहीं तो नियंत्रक सर, कहाँ कुछ देने वाले.
ये मुखरता का अभाव बहुत गैप बना रहा था. स्टाफ चाहता था कि उसके और कस्टमर के बीच में बॉस की मुखरता एक पुल बने, कस्टमर की अपेक्षाएं थीं कि सर हमारी परेशानियों का निदान करें, परेशान करने वाले स्टाफ को नसीहत दें, मन लगाकर सामान्य से भी अधिक काम करने वाले कारसेवक उनसे तारीफ के दो शब्द सुनना चाहते थे, परेशान करने वाले चाहते थे कि कम से कम डांटें तो, ताकि हम अपनी कलाकारी का मजा ले सकें और यूनियन के नेता भी यही चाहते थे कि ये कुछ बोलें तो तब तो हम भी इनको बतायें कि हम क्या चीज हैं. पर दिक्कत यही थी कि ये कुछ बोलते ही नहीं थे. जुबान को मुंह में और हाथो को पेंट की दोनों जेबों याने पाकेटों में बंद करके ये तो बुद्ध के समान निर्विकार बने रहते हैं. आंखे भी फरियाद सुनने की एक्टिंग से महरूम नजर आती थीं. जब तक दूसरे बोलते रहते, ये या तो अपने सिंहासन पर गहरी सोच में बैठे रहते और फिर सिर झुकाकर अपने काम में लग जाते. फरियादी कनफ्यूज हो जाता कि उसकी बात सुनी गई या नहीं और उसी मन:स्थिति में बाहर आता जैसे हम लोग मंदिरों में भगवान से कुछ मांगने, प्रार्थना करने के बाद आ जाते हैं. ये बिल्कुल भी निश्चित नहीं होता कि भगवान ने हमारी प्रार्थना सुनी भी है या नहीं और प्रभु से जो मांगा है वो मिलेगा या नहीं. बाद में बैंक के कस्टमर्स भी इनको समझ गये और जब कोई छोटा प्रबंधक ये बोलता कि “अगर आप हमारे समाधान से संतुष्ट नहीं हैं तो जाइये चीफ मैनेजर से मिल लीजिए. तो वाकिफ और अभ्यस्त कस्टमर्स साफ मना कर देते कि सर! हम तो नहीं जायेंगे, जो भी हमारा भला बुरा होगा, होगा या नहीं होगा, सब आप ही करेंगे. अंततः वही जूनियर प्रबंधक गण खुश होकर या दयालु होकर कस्टमर्स की समस्याओं का निदान कर देते. इसे वरदान समझकर और ऊपर वाले (प्रथम तल वाले को नहीं बल्कि ईश्वर को) सादर प्रणाम करते हुये शाखा के निकास द्वार की ओर बढ़ जाते.
नोट :पानीपत का युद्ध जारी रहेगा टेस्ट मैच की गति से. जो प्रशंसा के दो शब्द अभिव्यक्त करने भी हमारे इन्हीं मुख्य प्रबंधक महोदय जैसे कृपण बने हुये हैं या बुद्ध जैसे निर्विकार होने का ढोंग कर रहे हैं उनसे यही कहा जा सकता है कि ये दैनिक भास्कर अखबार नहीं है जो अनजान व्यक्ति सुबह सबेरे दरवाजे पर डाल जाता है. संभावनाओं की पराकाष्ठा उसे ऐ. पी. जे. अब्दुल कलाम भी बना सकती है. हालांकि ये तय है कि मेरे साथ ये नहीं होगा. प्रार्थना मैंने भी की थी पर पता नहीं चला कि भगवान ने सुनी थी या नहीं. नहिंच ही सुनी होगी.
यात्रा जारी रहेगी.
© अरुण श्रीवास्तव
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