श्री आशिष मुळे
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #7 ☆
☆ कविता ☆ “खुद मिटकर यूं …” ☆ श्री आशिष मुळे ☆
हव्वा, तुम्हारी चाल कैसी
उलझी है मेरे दिल में
तुम्हारे कातिल इरादे
इन फलों में जो मिलाओ
खुद मिटकर यूं
हमें और ना मिटाओ…
ठीक है हुई भूल है
इतना गुस्सा ना करो
गुस्से में यूं गालों को
सेब लाल जो बनाओ
बात खुलके करो
यूं हसी से ना टोको
दूरियां चल के मिटाओ
निगाहों से और ना बढ़ाओ
खुद मिटकर यूं
हमें और ना मिटाओ…
भूल आदम की थी
सितम हम पे ना गिराओ
जितने की अकल तुममें थीं
शर्मिंदा हमे और ना करो
खुद मिटकर यूं
हमें और ना मिटाओ…
वैसे भी तुम
यूं ही जीती हुई हो
अब हमें और तुम
ऐसे यूं ना हराओ
सिर से हमारे अब
ये पत्थर उतारो
तुम्हे ताज चाहिए
बस मांग कर देखो
हम पे वो सजाकर
यूं ख़ुद राज जो करो
खुद मिटकर यूं
हमें और ना मिटाओ…
© श्री आशिष मुळे
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈