श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय “सुलगती कहानी”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 165 ☆
☆ लघुकथा – 📒सुलगती कहानी 📒 ☆
दरवाजे की घंटी बजी। महिमा ने दरवाजा खोलो। देखा वयोवृद्ध लगभग अस्सी वर्ष के एक वरिष्ठ सज्जन सामने खड़े दिखाई दिए। उसने कहा… “आप कौन?” तत्काल कंपन लिए परंतु जोरदार आवाज में बोले “क्या कहा? … आने के लिए नहीं कहोगी।” महिमा ने दरवाजे से एक ओर हट कर कहा… “आइए बैठिए, मैंने आपको पहचाना नहीं।” “तुम पहचान भी नहीं सकती परंतु मैं तुम्हें पहचान रहा हूँ। अभी तुम्हारी कलम लिखाई कर रही है। यह देखो मेरे लिखे गीत, कहानियाँ।” करीब 10-12 किताबें उन्होंने टेबिल पर लगा दी। एक फटी पुरानी फाइल से निकालते उन्होंने ने दिखाया -“मेरी कहानियां कभी बोलती थी। सभी जगह से मैं सम्मानित होता था। आज मौन हो एक बस्ते में पड़ी हैं। क्या करूं?? समय ने ऐसा दिन दिखाया कि मुझे अब कहानियों से लगाव तो है परंतु यह पेट नहीं भर पा रहा है। मेरे पाँच बेटे हैं परंतु किसी काम के नहीं।
आज सोशल मीडिया पर मेरे स्वयं के बच्चे दिन भर छोटी छोटी बातें कहानियां दूसरों की सीख देखते हैं और मेरी किताब को रद्दी के भाव में बेंच रहे।”
आँखों से टपकते आँसुओं ने उसकी कमीज की बाजू भिगो दिया। “क्या कहूं तुम्हें कुछ समझ नहीं आ रहा।” महिमा आवाक देखती रही।
टेबल पर एक कृति अचानक गिरी “सुलगती कहानी”। महिमा ने तत्काल उसे उठाया और उन वरिष्ठ का सम्मान अपने तरीके से कर हाथ जोड़ खड़ी रही।
उन्होंने झोला निकाला सभी किताबों को डाल दुआओं में बस इतने बोल कह गये…” कभी लिखना मेरी कहानियाँ… मेरे जीवन को अपनी कलम में स्थान देना। लिखना मेरी सुलगती कहानी।” महिमा उसकी किताब को लिए उसे दूर जाते देखती रही।
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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈