श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “राम को वनवास…”।)
जय प्रकाश के नवगीत # 17 ☆ राम को वनवास… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
ज़रूरत है फिर मिले,
राम को वनवास।
सरक आया जंगलों तक
शहर का जंगल,
हो रहे हैं सुबाहू
मारीच के दंगल,
ताड़का से गगनचुंबी,
बन गये आवास।
नदी बहरी हो गई है
मूक हैं झरने,
ज़हर पीकर हवाएँ भी
लगी हैं डसने,
हवन होती आस्थाएँ,
छल रहा विश्वास।
कहाँ विश्वामित्र हैं
कहाँ हैं गौतम,
अहल्या सी प्रजा सारी
पड़ी है बेदम,
कब उठेगा परस पाकर
मृत पड़ा उल्लास।
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© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)
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