डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक व्यंग्य बंडू के शुभचिन्तक। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 206 ☆
☆ व्यंग्य – बंडू के शुभचिन्तक

बंडू ने बड़े उसूलों के साथ शादी की— कोई लेन-देन नहीं, कोई तड़क-भड़क, कोई दिखावा नहीं। सादगी से शादी कर ली। दोस्तों, परिचितों को आमंत्रित करके मिठाई खिला दी, चाय पिला दी। बस।

बंडू ने कुछ और भी क्रांतिकारिता की। शादी के बाद यह व्रत लिया कि कम से कम तीन साल तक देश की जनसंख्या में कोई योगदान नहीं देना है। पत्नी गुणवंती को उसके माँ-बाप ने आशीर्वाद दिया था—‘दूधों नहाओ,पूतों फलो।’ दूधों नहाना तो अच्छे अच्छों के बस का नहीं रहा, पूतों फलने में कोई हर्रा-फिटकरी नहीं लगता। आशीर्वाद का यह हिस्सा आसानी से फलीभूत हो सकता था। लेकिन बंडू ने उस पर भी पानी फेर दिया। गुणवंती भी मन मारकर रह गयी। सोचा, अभी मान लो, फिर धीरे-धीरे पतिदेव को समझाएंगे।

लेकिन पड़ोसी, रिश्तेदार नहीं माने। इस देश में साल भर में बच्चा न हो तो अड़ोसी-पड़ोसी पूछने लगते हैं—‘ कहो भई, क्या देर है? कब मिठाई खिलाने वाले हो?’ बच्चा न होने की चिन्ता पति-पत्नी को कम, पड़ोसियों को ज़्यादा होने लगती है।

बंडू का एक साल खूब आनन्द और मस्ती से गुज़रा। मर्जी से घूमे, मर्जी से खाया, मर्जी से सोये, मर्जी से उठे। कोई चें पें नहीं। पति के प्रेम का हिस्सेदार कोई नहीं। बंडू का एकाधिकार।

लेकिन एक साल बाद परिचित और पड़ोसी अपनी शुभचिन्ता से उनके आनन्द में सुई टुच्चने लगे। कोई देवी बड़े गर्व से कहती, ‘भई, हमारे पेट में तो पहले ही साल में लट्टू आ गया था, दूसरे साल में नट्टू आया और तीसरे साल में टुन्नी आयी। फिर दो साल का गैप रहा। उसके बाद गट्टू और फिर चट्टू।’

अफसोस यही है कि ऐसी माताएँ भारत में जन्म लेती और देती हैं। रूस में होतीं तो राष्ट्रमाता के खिताब से विभूषित होतीं।

दूसरी महिलाएँ गुणवंती की सास को सुनाकर कहतीं, ‘भई, हमारी बहू भली निकली कि पहले साल में ही हमें नाती दे दिया। अब हम नाती खिलाने में मगन रहते हैं।’

जिन महिलाओं ने अपना सारा जीवन क्रिकेट या हॉकी की एक टीम को जन्म देने में गला दिया था और बच्चों को जन्म देते देते जिनका शरीर खाल और हड्डी भर रह गया था, वे भी गुणवंती के सामने श्रेष्ठता-बोध से भर जातीं।

दो साल होते न होते गुणवंती को देखकर महिलाओं में खुसुर-फुसुर होने लगी। वृद्ध महिलाएँ उसकी सास का दिमाग चाटती रहतीं— ‘क्या बात है? यह कैसी फेमिली प्लानिंग है? क्या बुढ़ापे में बच्चा पैदा करेंगे? बंडू की शादी करने से क्या फायदा जब अभी तक नाती का मुँह देखने को नहीं मिला।’

गुणवंती की सास परेशान। वह यह सब सुनकर दुखी और उम्मीद भरी निगाहों से बहू की तरफ देखती, जैसे कहती हो— ‘बहू, सन्तानवती बनो और मुझे इन शुभचिन्तकों से निजात दिलाओ।’

गुणवंती के आसपास हमेशा एक सवाल लटका रहता। महिलाएँ तरह-तरह की नज़रों से उसे देखतीं— कोई उपहास से, कोई सहानुभूति से, तो कोई दया से।

बीच में परेशान होकर गुणवंती बंडू से कहती, ‘अब यह व्रत बहुत कठिन हो रहा है। अब इन शुभचिन्तकों पर दया करो और अधिक नहीं तो एक सन्तान को धरती पर अवतरित होने की अनुमति दो।’

लेकिन बंडू एक नंबर का ज़िद्दी। लोग जितना टिप्पणी करते उतना ही वह अपनी ज़िद में और तनता जाता।

तीसरा साल पूरा होते-होते पड़ोस की वृद्धाएँ पैंतरा बदलने लगीं। अब वे सिर हिला हिला कर गुणवंती की सास से कहतीं, ‘बहू की डॉक्टरी जाँच कराओ। हमें तो कुछ दाल में काला नजर आता है।’

यह बातें सुनकर अब गुणवंती का जी भी घबराने लगा। वह बंडू से कहती, ‘देखो जी, ये लोग मेरे बारे में क्या-क्या कहती हैं। अब तो अपना व्रत छोड़ दो।’

लेकिन बंडू कहता, ‘मुझे दुनिया से कोई मतलब नहीं। हम इन सब को खुश करने के लिए अपनी योजना खत्म नहीं करेंगे।’

और कुछ वक्त गुज़रा तो और नये सुझाव आने लगे— ‘भई, हमारे खयाल से तो बहू बच्चा पैदा करने लायक नहीं है। जाँच वाँच करवा लो। जरूरत पड़े तो तलाक दिलवा कर बंडू की दूसरी शादी करवा दो। बिना सन्तान के मोक्ष कैसे मिलेगा?’ मसान जगाने और कनफटे नकफटे बाबा के पास जाने के सुझाव भी आये।

हमारे देश में अभी तक बच्चा न होने पर उसके लिए पत्नी को ही दोषी समझा जाता है। डॉक्टरी जाँच भी अक्सर पत्नी की ही होती है। पतिदेव की जाँच पड़ताल किये बिना ही उनकी दूसरी शादी की तैयारियाँ होने लगती हैं।

ये सब बातें सुनकर गुणवंती के प्राण चोटी तक चढ़ने लगे। वह पति की चिरौरी करती— ‘नाथ, मुझ दुखिया के जीवन का खयाल करके द्रवित हूजिए और एक सन्तान को आने की अनुमति प्रदान कीजिए।’

अब स्थितियाँ  बंडू के लिए भी असह्य होने लगी थीं। उसकी माँ बेचारी दो पाटों के बीच फँसी थी— इधर बेटा बहू, उधर शुभचिन्तकों की फौज।

अन्ततः एक दिन गुणवंती ने वे लक्षण प्रकट कर दिए जो किसी स्त्री के गर्भवती होने का प्रमाण देते हैं। उसकी सास ने चैन की साँस ली। बात एक मुँह से दूसरे मुँह तक चलते हुए पूरे मुहल्ले में फैल गयी। गुणवंती के दुख में दुखी सब महिलाओं ने सिर हिलाकर संतोष प्रकट किया।

लेकिन दुख की बात यह हुई कि उनके मनोरंजन और उनकी दिलचस्पी का एक विषय खत्म हो गया। अब किसे सलाह दें और किसकी तरफ झाँकें? अब उनकी नज़रें किसी दूसरे बंडू और दूसरी गुणवंती की तलाश में इधर-उधर घूमने लगीं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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