श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “कई स्वजन हैं मेरे…” । )
☆ तन्मय साहित्य #196 ☆
☆ कई स्वजन हैं मेरे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
कैसे कह दूँ अपने में,
केवल बस मैं हूँ
मेरे भीतर – बाहर,
कई स्वजन हैं मेरे ।
आत्मरूप परमात्मभाव
परिजन प्रिय प्यारे
जीवन पथ पर,
रहे सहायक साथ हमारे
प्रेम परस्पर भाई बहन
माँ-पिता, पुत्र का
पुत्रवधू, पुत्रियाँ,
भाव निश्छल सुविचारें,
जन्मजात संबंध रक्त के
भेदभाव नहीं मेरे तेरे।
मेरे भीतर बाहर कई स्वजन हैं मेरे।
बचपन में माँ पिता
बहन भाई सँग खेले
बड़े हुए तो लगे
युवा मित्रों के मेले
फिर पत्नी, पत्नी के परिजन
हुए निकटतम
धूप-छाँव के स्वप्न
विचित्र सुखद अलबेले,
प्रेमसूत्र में बँधे,
शक्ति-सामर्थ्य और सुख हैं बहुतेरे।
मेरे भीतर बाहर कई स्वजन है मेरे।
माँ से लाड़ – दुलार,
स्नेह संसार मिला
प्राप्त पिता से जीवन,
जग-व्यवहार कला
भाई-बहनों से सम्बन्ध,
समन्वय सीख
संतानों से मन-उपवन
है खिला-खिला,
स्वाभाविक ही जीवन में
सुख-दुख के भी रहते हैं फेरे
मेरे भीतर बाहर कई स्वजन है मेरे।
परिजन रहित,
अकेला जीवन तो है खाली
बगिया में ज्यों,
बिन फूलों के रहता माली
हो कृतज्ञ मन,
एक दूजे से प्रीत निभाएँ
तभी मनेगी राखी,
होली, ईद, दिवाली,
बिन परिजन अभिमन्यु तोड़
सका नहीं चक्रव्यूह के घेरे।
मेरे भीतर बाहर कई स्वजन हैं मेरे।
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© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश
मो. 9893266014
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈