श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की प्रथम कड़ी।

☆ आलेख # 83 – प्रमोशन… भाग –1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

ये मेरी पोस्ट, कौन बनेगा करोड़पति के विज्ञापन से प्रभावित है, जो डब्बा की उपाधि से प्रचलित अभय कुमार की कहानी है. विज्ञापन के विषय में ज्यादा लिखना आवश्यक नहीं है क्योंकि ये तो प्राय: सभी देख चुके हैं. गांव के स्कूल के जीर्णोद्धार के लिये 25 लाख चाहिये तो गांव के मुखिया जी के निर्देशन में सारे मोबाइल धारक KBC में प्रवेश के लिये लग जाते हैं, किसी और का तो नहीं पर कॉल या नंबर कहिये लग जाता है “डब्बा” नाम के हेयर कटिंग सेलून संचालक का जो प्राय: अशिक्षित रहता है. तो पूरे गांववालों द्वारा माने गये इस अज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम के लिये तैयार करने की तैयारी के पीछे पड़ जाता है पूरा गांव. ये तो तय था कि एक अल्पज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम जिताने के लिये असंभव प्रयास किये जा रहे थे, किसी चमत्कार की उम्मीद में, जो हम अधिकांश भारतीयों की आदत है. पर जब परिणाम आशा के अनुरूप नहीं मिला तो सारे गांववालों ने डब्बा को उठाकर कचरे के डब्बे में डाल दिया. ये हमारी आदत है चमत्कारिक सपनों को देखने की और फिर स्वाभाविक रूप से टूटने पर हताशा की पराकाष्ठा में टूटे हुये सपनों को दफन कर देने की. गांव का सपना उनके स्कूल के पुनरुद्धार का था जो वाजिब था, केबीसी में कौन जायेगा, जायेगा भी या नहीं, चला भी गया तो क्या पच्चीस लाख जीत पायेगा, ये सब hypothetical ही तो था. पर यहां से डब्बा के घोर निराशा से भरे जीवन में उम्मीद की एक किरण आती है उसके पुत्र के रूप में जो हारे हुये साधनहीन योद्धा को तैयार करता है नये ज्ञान रूपी युद्ध के लिये. ये चमत्कार बिल्कुल नहीं है क्योंकि अंधेरों के बीच ये रोशनी की किरण हम सब के जीवन में कभी न कभी आती ही है और हम इस उम्मीद की रोशनी को रस्सी की तरह पकड़ कर, असफलता और निराशा के कुयें से बाहर निकल आते हैं. वही चमत्कार इस विज्ञापन में भी दिखाया गया है जब डब्बा जी पचीस लाख के सवाल पर बच्चन जी से फोन ए फ्रेंड की लाईफ लाईन पर मुखिया जी से बात करते हैं सिर्फ यह बतलाने के लिये कि 25 लाख के सवाल का जवाब तो उनको मालुम है पर जो मुखिया जी को मालुम होना चाहिये वो ये कि उनका नाम अभय कुमार है, डब्बा नहीं.

हमारा नाम ही हमारी पहली पहचान होती है और हम सब अपनी असली पहचान बनाने के लिये हमेशा कोशिश करते रहते हैं जो हमें मिल जाने पर बेहद सुकून और खुशियां देती है. सिर्फ हमारे बॉस का शाम को पीठ थपाथपा कर वेल डन डियर कहना इंक्रीमेंट से भी ज्यादा खुशी देता है. लगता है कि इस ऑफिस को हमारी भी जरूरत है. हम उनकी मजबूरी या liability नहीं हैं.

विज्ञापन का अंत बेहद खूबसूरत और भावुक कर देने वाला है जब इस विज्ञापन का नायक अभय कुमार अपने उसी उम्मीद की किरण बने बेटे को जिस स्कूल में छोड़ने आता है उस स्कूल का नाम उसके ही नाम अभय कुमार पर ही होता है। ये अज्ञान के अंधेरे में फेंक दिये गये, उपेक्षित अभयकुमार के सफर की कहानी है जो लगन और सही सहारे के जरिये मंजिल तक पहुंच जाता है जो कि उसके गांव के स्कूल का ही नहीं बल्कि उसका भी पुनरुद्धार करती है. ये चमत्कार की नहीं बल्कि कोशिशों की कहानी है अपनी पहचान पाने की.

 – अरुण श्रीवास्तव 

प्रस्तावना

ये किस्सा जिला मुख्यालय स्थित किसी ब्रांच का है जिसे तब तक मुख्य शाखा का दर्जा नहीं मिला जब तक कि उस शहर में बैंक की दूसरी ब्रांच नहीं खुली. जाहिर है कि ये एक करेंसी चेस्ट ब्रांच थी और है भी पर ये बात पुराने जमाने की है या फिर हमारे जमाने की है जब शाखायें बिना कंप्यूटर के भी चला करती थीं और बहुत खूब चला करती थीं. इस शाखा के सामने ही एक प्रतिद्वंद्वी बैंक की भी शाखा थी जो बिल्कुल 180 डिग्री जैसी आमने सामने स्थित थीं. इसे उनके सीनियर ब्रांच मैनेजर चलाते थे. इस तरफ की बैंक वालों ने बहुत कोशिश की ये पता लगाने की कि जूनियर शाखाप्रबंधक क्या करते हैं पर लाख कोशिशों के बावजूद यह पता नहीं चल पाया कि जूनियर शाखाप्रबंधक कौन हैं और क्या वो भी शाखा चलाते हैं. दोनों बैंकों में काम करने वाले लोग फुरसत के समय सामने वाली शाखा को यथासंभव और यथाशक्ति बहुत अंदर तक देखने की कोशिश करते रहते थे. हमारी शाखा मजबूत थी क्योंकि हमारे पास स्ट्रांग रूम था, जो उनके पास नहीं था. पर उनके पास बैंक के ऊपर ही शाखाप्रबंधक आवास था जो हमारे पास नहीं था. हमारे शाखाप्रबंधक शहर में कहीं और ही निवास करते थे. और इस कारण भी दोनों प्रतिद्वंद्वी बैंकों के शाखाप्रबंधकों में कोई प्रतिद्वंदिता नहीं थी और उन लोगों के औपचारिक ही सही पर बहुत मधुर संबंध थे।

ये वो दौर था जब स्टाफ के आपस में और कस्टमर के स्टाफ से बड़े मधुर संबंध हुआ करते थे. अब इसका यह मतलब मत निकाल लीजिएगा कि “क्यों, क्या अब नहीं है, कैसी बात करते हैं “. उस दौर में और उस शहर में व्यापारी वर्ग के लिए इन्हीं बैंकों पर आश्रित होना आवश्यक भी था और व्यवहारिक भी. अतः नगरीय दादा होने के बाद भी इस तरह के कस्टमर्स अपना यह गुण शहर के अन्य स्थानों पर आजमाने के लिये रिजर्व रखते थे.

शहर में जो नगर सेठ माने जाते थे, वो रोजाना के बैंक के कामों के लिये या तो अपने मुनीम को भेजते थे या फिर परिवार के किसी जूनियर सदस्य को और उसे यह कहकर रवाना करते कि “जा पहले बैंक का काम तो सीख ले, फिर गद्दी पर बैठना”. यह गद्दी भी परिवार का राजसिंहासन कहलाती थी जिस पर बैठने का अधिकार सबसे बड़े और सक्रिय सदस्य को ही मिल पाता था और बाकी लोग बड़े भैया के रिटायरमेंट का इंतजार करते रहते थे. ये रिटायरमेंट न तो साठ वर्ष की आयुसीमा से बंधा था न ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति से. ये तो मुखिया के दमखम और वणिक बुद्धि के हिसाब से चलता था. यही वणिक-कुल की रीत थी कि” जब तक प्राण न जाये गद्दी भी न जाई. “जब तक बड़े भैया गद्दी नशीन रहते, अपने खानदान की अर्श से फर्श तक उठाने की खुद के पराक्रम की कहानी सुनाना उनका प्रिय शौक हुआ करता था. जिनको गद्दी से कुछ फायदा मिलने की उम्मीद होती वो हरिकथा सुनने जैसी ही बड़ी आस्था के साथ सेठजी की आंयबांयशांय सुनने का सफल अभिनय करते रहते. हालांकि बाद में बाहर निकल कर इन श्रोताओं की सारी भक्ति, अंदर बैठी राक्षसी प्रवृत्ति का साथ पाकर सेठ के लिये चुनी हुई गालियों का सारा खजाना खाली कर जाती. ऐसा इसलिए भी होता था कि सेठजी पक्के दुनियादार और चतुर कंजूस बनिए थे और ये असंभव था कि कोई भी ऐरागैरा उनको राह चलते या उनके घर में बैठकर बना ले.

इस श्रंखला को भी शुरू करने का मकसद सिर्फ और सिर्फ व्यंग्य में लिपटा मनोरंजन ही है. कुछ अलग मतलब निकल जाये इसलिए पहले से ही यह कहना जरूरी है कि यह शाखा, घटनाएं और शाखा के सभी वर्णित पात्र कल्पना से रचे गये हैं, किसी दुर्भावना से नहीं. सम्मोहक लेखन तभी संभव हो पाता है जब यह यथार्थ, भोगा हुआ या देखा हुआ हो, थोड़ी बहुत कल्पना श्रंखलाओं को प्रभावी मोड़ दे सकती हैं पर अनुभव और ऑब्सरवेशन का कोई मुकाबला नहीं है. ये अनुभव खुद के भी हो सकते हैं या किसी और के भी पर इन कारकों से ही अपने में समाहित करने योग्य रचनाओं का सृजन संभव हो पाता है. अतः शौक से पढ़िए और आनंदित होने का प्रयास करिये. आज के युग में सेवानिवृत्त होने के बाद भी तनावमुक्त और हास्ययुक्त जीवन जीना कठिन हो गया है इसलिए प्रयास यही रहता है कि गाड़ी रिवर्स गेयर में डालकर वहाँ ले जाइ जाये जहाँ उतरकर यात्रीगण पुराने पर खूबसूरत वक्त की खुशियों को फिर से जी सकें, मुस्कुरा सकें. किसी को दुखी करने या “लेगपुलिंग” का पाप करने का दूर दूर तक कोई इरादा नहीं है.

आध्यात्मिक, भावनात्मक, पारिवारिक, चिकित्सीय, यूट्यूबीय फारवर्डेड संदेश पढ़ते रहिये पर हमारी गारंटी है कि हमारी श्रंखलाओं का आनंद, जब भी ये चलती हैं, बिल्कुल अलग और अनूठा रहता है. फिर भी यदि आनंदित नहीं हो पाते हैं तो फिर आपको डॉक्टर की आवश्यकता है और ये डॉक्टर मनमोहन सिंह भी हो सकते हैं.

वैसे फर्ज बनता है कि बेतहाशा और मुफ्त ऐसी लेखन सामग्री “नहीं’ पढ़ने की हिदायत दी जाये जिनको पढ़कर इस तरह की आत्मिक ग्लानि हो जाये कि:

  1. भाई हम तो बहुत पापी हैं, दूसरे लोक के लिये हमने तो कोई भी प्वाइंट नहीं कमाये, स्वर्ग या मोक्ष के चांस तो मेरिट चैनल में टॉप करने के सपने जैसे हैं जो नहीं मिल सकते.
  2. अरे इतना सरल इलाज वाट्सएप पर था और हमने बेकार ही अस्पतालीय इलाज में लाखों खर्च कर दिये. ये बात अलग है कि पॉलिसी ए/बी से काफी कुछ वापस मिल गया पर स्वास्थ्य की तो बैंड बज ही गई.
  3. काश कि ऐसे श्रवणकुमार और श्रवणकुमारी संताने/भाई/बहन हमारी भी होतै जो इन वाट्सएपीय कहानियों के परिजनों जैसी हमारी भी पूजा करते बाकायदा रोज सुबह शाम फिल्मी भजनों के साथ (वैसे ये अंदर की बातें हैं, बताई नहीं जातीं, वाट्सएप पर शेयर जरूर की जाती हैं.
  4. जीवन में गुरुजन तो बहुत मिले जो हमें गुरुदीक्षा देना चाहते थे पर तब तो हमको बैंक की पड़ी थी. काम सीखना है, खूब काम करना है, बॉस को नाराज नहीं करना है और दनादन प्रमोशन लेना है पूरी तैयारी के साथ. तो उस वक्त तो बस यही सब चलता था. अब पता चलता है कि भाई हमने तो वो किया ही नहीं जिसके लिये यह मानव जीवन मिला है. पर अब तो सत्तर प्लस पार कर चुकी गाड़ी सिग्नलपोस्ट पर खड़ी है. सिग्नल का इंतजार है. सिग्नल जहाँ लाल से हरा हुआ फिर जय श्री राम ही है. अब जो भी है वही संभालेंगे.

प्रमोशन श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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