डॉ. मुक्ता
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख समय–सर्वश्रेष्ठ उपहार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 200 ☆
☆ समय–सर्वश्रेष्ठ उपहार ☆
आधुनिक युग में बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता की भावना ने बच्चों, परिवारजनों व समाज में आत्मकेंद्रिता के भाव को जहां पल्लवित व पोषित किया है; वहीं इसके भयावह परिणाम भी सबके समक्ष हैं। माता-पिता की अधिकाधिक धन कमाने की लिप्सा ने, जहां पति-पत्नी में अलगाव की स्थिति को जन्म दिया है; वहीं उनके हृदय में उपजे संशय, शंका, संदेह व अविश्वास के भाव अजनबीपन का भीषण-विकराल रूप धारण कर मानव-मन को आहत-उद्वेलित कर रहे हैं; जिसके परिणाम-स्वरूप ‘लिव-इन व सिंगल पेरेंट’ का प्रचलन निरंतर बढ़ रहा है… जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चे भुगतने को विवश हैं और वे निरंतर एकांत की त्रासदी से जूझ रहे हैं। भौतिकतावाद की बढ़ती प्रतिस्पर्द्धात्मक प्रवृत्ति ने तो बच्चों से उनका बचपन ही छीन लिया है, क्योंकि एक ओर तो उनके माता-पिता अपने कार्य-क्षेत्र में प्रतिभा-प्रदर्शन कर एक-दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहते हैं, दूसरी ओर वे अपनी अतृप्त इच्छाओं व सपनों को अपने आत्मजों के माध्यम से साकार कर लेना चाहते हैं। इस कारण वे उनकी रूचि व रूझान की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते।
इस प्रकार माता-पिता भले ही धन-संपदा से सम्पन्न होते हैं और उनका जीवन भौतिक सुख-सुविधाओं व ऐश्वर्य से लबरेज़ होता है, परन्तु समयाभाव के कारण वे अपने आत्मजों के साथ चंद लम्हे गुज़ार कर उन्हें जीवन की छोटी-छोटी खुशियां भी नहीं दे सकते; जो उनके लिए अनमोल होती हैं, प्राणदायिनी होती हैं। यह कटु सत्य है कि आप पूरी दौलत खर्च करके भी न तो समय खरीद सकते हैं; न ही बच्चों का चिर-अपेक्षित मान-मनुहार और उस अभाव की पूर्ति तो आप लाख प्रयास करने पर भी नहीं कर सकते। सो! अत्यधिक व्यस्तता के कारण माता-पिता से अपने आत्मजों को सुसंस्कृत करने की आशा करना तो दूर के ढोल सुहावने जैसी बात है। वास्तव में यह कल्पनातीत है, बेमानी है।
चिन्तनीय विषय तो यह है कि आजकल न तो माता-पिता के पास समय है; न ही शिक्षण संस्थानों में अपनी संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराया जाता है और न ही जीवन- मूल्यों की महत्ता, सार्थकता व उपादेयता का पाठ पढ़ाया जाता है। सो! उनसे नैतिकता व मर्यादा-पालन की शिक्षा देने की अपेक्षा करना तो व्यर्थ है। बच्चों का टी•वी• व मीडिया से जुड़ाव, मदिरा व ड्रग्स का आदी होना, क्लब व रेव-पार्टियों में उनकी सहभागिता-सक्रियता को देख हृदय आक्रोश से भर उठता है; जो उन मासूमों को अंधी गलियों में धकेल देता है। इसका मूल कारण है– पारस्परिक मनमुटाव के कारण अभिभावकों का बच्चों की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों में रुचि न लेना। दूसरा मुख्य कारण है–संयुक्त परिवार-व्यवस्था के स्थान पर एकल परिवार-व्यवस्था का प्रचलन। वैसे भी परिवार आजकल माता-पिता व बच्चों तक सिमट कर रह गए हैं… संबंधों की गरिमा तो बहुत दूर की बात है। रिश्तों की अहमियत भी अब तो रही नहीं… मानो उस पर कालिख़ पुत गयी है।
यह तो सर्वविदित है कि बच्चों को मां के स्नेह के साथ-साथ, पिता के सुरक्षा-दायरे की भी दरक़ार रहती है और दोनों के सान्निध्य के बिना उनका सर्वांगीण विकास हो पाना असम्भव है। इन विषम परिस्थितियों में पोषित बच्चे भविष्य में समाज के लिए घातक सिद्ध होते हैं। अक्सर अपने-अपने द्वीप में कैद माता-पिता बच्चों को धन, ऐश्वर्य व भौतिक सुख-सुविधाएं प्रदान कर अपने कर्त्तव्य-दायित्वों की इतिश्री समझ लेते हैं। इसलिए स्नेह व सुरक्षा का उनकी नज़रों में कोई अस्तित्व नहीं होता। ऐसे बच्चे सभ्यता-संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं– हैलो-हाय के वातावरण में पले-बढ़े बच्चे मान-सम्मान के संस्कारों से कोसों दूर हैं… भारतीय संस्कृति में उनकी तनिक भी आस्था नहीं है…. बड़े होकर वे अपने माता- पिता को उनकी ग़लतियों का आभास-अहसास कराते हैं और उन्हें अकेला छोड़ अपने परिवार में मस्त रहते हैं। इन अप्रत्याशित परिस्थितियों में उनके माता-पिता प्रायश्चित करने हेतु उनके साथ रहना चाहते हैं; जो उन्हें स्वीकार नहीं होता, क्योंकि उन्हें उनसे लेशमात्र भी स्नेह-सरोकार नहीं होता।
सच ही तो है ‘गया वक्त लौटकर कभी नहीं आता। सो! वक्त वह अनमोल तोहफ़ा है, जो आप किसी को देकर, उसे आपदाओं के भंवर से मुक्त करा सकते हैं। इसलिए बच्चों व बुज़ुर्गों को समय दें, क्योंकि उन्हें आपके धन की नहीं– समय की, साथ की, सान्निध्य व साहचर्य की ज़रूरत होती है… अपेक्षा रहती है। आप चंद लम्हें उनके साथ गुजारें…अपने सुख-दु:ख साझा करें, जिसकी उन्हें दरक़ार रहती है। वास्तव में यह एक ऐसा निवेश है, जिसका ब्याज आपको जीवन के अंतिम सांस तक ही प्राप्त नहीं होता रहता, बल्कि मरणोपरांत भी आप उनके ज़हन में स्मृतियों के रूप में ज़िन्दा रहते हैं। यही मानव जीवन की चरम-उपलब्धि है; सार्थकता है; जीने का मक़सद है।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी
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