डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है ममता की पराकाष्ठा प्रदर्शित करती एक सार्थक कहानी ‘एक रहस्यमय मौत‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 217 ☆
☆ लघुकथा – एक रहस्यमय मौत ☆
नवीन भाई का स्वास्थ्य कुछ दिनों से नरम-गरम चल रहा है। ब्लड-प्रेशर ऊपर नीचे हो रहा है। सत्तर पार की उम्र हुई, इसलिए कई लोगों के हिसाब से यह स्वाभाविक है।
डॉक्टर कहता है कि दवा के अलावा भी कुछ और उपाय अपनाने चाहिए। खाने में नमक कम करें, तनाव से बचें, नींद पूरी लें, चीज़ों को ज़्यादा गंभीरता से न लें, योगा करें, ध्यान करें, प्राणायाम करें, जब टाइम मिले आँखें मूँद कर शान्त बैठें, चिन्ता के लिए दरवाज़ा न खोलें।
नवीन भाई की रुचि कभी अध्यात्म में नहीं रही। पूजा-पाठ के लिए नहीं बैठते। परिवार के ठेलने पर सबके साथ मन्दिर चले जाते हैं। तीर्थ यात्रा पर भी परिवार के पीछे-पीछे चले जाते हैं। मित्रों से सत्संग करने की सलाह मिलती है तो हँसकर ‘मोमिन’ का शेर सुना देते हैं— ‘आख़िरी वक्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे।’
नवीन भाई संवेदनशील व्यक्ति हैं। किसी की भी पीड़ा सुनकर द्रवित हो जाते हैं। किसी के भी साथ हुए अन्याय को पढ़कर अस्थिर हो जाते हैं। कई बार क्रोध का उफ़ान उठता है। बेचैन हो जाते हैं। शायर ‘अमीर मीनाई’ के शेर को चरितार्थ करते हैं— ‘खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर, सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।’ परिवार वालों का सोचना है कि यह अनावश्यक ‘पर-दुख कातरता’ ही उनके ब्लड-प्रेशर बढ़ने की वजह है।
अब नवीन भाई डॉक्टर की हिदायतों का पालन करने की कोशिश करते हैं। जब खाली होते हैं तो आँखें मूँद कर बैठ जाते हैं। परेशान करने वाले विचारों को ठेलने की कोशिश करते हैं। यूक्रेन, इज़रायल-गाज़ा, मणिपुर, उज्जैन, उन्नाव, हाथरस, लखीमपुर खीरी, जंतर मंतर, किसानों की आत्महत्या, परीक्षाओं के पेपर की लीकेज, बेरोज़गारी, भुखमरी, असमानता, वैज्ञानिक सोच को छोड़कर बाबाओं के दरबार में जुटती नयी पीढ़ी, नेताओं के झूठ और पाखंड, जाति-धर्म के दाँव-पेंच— ये सारे प्रेत बार-बार उनके दिमाग पर दस्तक देते हैं और वे बार-बार उन्हें ढकेलते हैं। अखबार और टीवी में परेशान करने वाली खबरों और दृश्यों को देखकर अब आँखें फेर लेते हैं। मित्रों के दुखड़े एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने की कोशिश करते हैं।
धीरे-धीरे नवीन भाई को सफलता मिलने लगी। उन्हें घेरने और परेशान करने वाले प्रेतों की आमद कम होने लगी। दिमाग हल्का रहने लगा। अब वे घंटों आँखें मूँदे बैठे रहते। कहीं कोई परेशान करने वाला विचार नहीं। ‘मूँदौ आँख कतउँ कोउ नाहीं।’ ब्लड-प्रेशर ने नीचे का रुख किया। घर वाले भी निश्चिन्त हुए।
अब नवीन भाई का दिमाग बिना अधिक श्रम के चिन्तामुक्त, विचारमुक्त रहने लगा। आँख मूँदते ही समाधि लग जाती। दिमाग में सन्नाटा हो जाता। कभी-कभी नींद लग जाती। घर वाले भी उन्हें तभी हिलाते-डुलाते जब स्नान-भोजन का वक्त होता।
एक दिन नवीन भाई की समाधि अखंड हो गयी। आँखें मूँदीं तो फिर खुली ही नहीं। घर वालों ने हिलाया डुलाया तो ढह गये।
डॉक्टर परेशान है कि जब ब्लड-प्रेशर करीब करीब नॉर्मल हो गया तो नवीन भाई की मृत्यु अचानक कैसे हो गयी। यह अब भी रहस्य बना हुआ है।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈