श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है टेलीपेथी पर आधारित सात्विक स्नेह से परिपूर्ण एक लघुकथा “कोरा कागज ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 172 ☆
☆ लघुकथा – 📋कोरा कागज 📋 ☆
आजकल मोबाइल के इस आधुनिक युग में लाईक, डिलीट, स्टार, ब्लॉक, शेयर,ओहह यह सब करते-करते मनुष्य भावपूर्ण मन की बातें पत्र लेखन चिट्ठियों को भूल ही गया है।
पत्र सहेज कर रखना, उसे फिर से दोबारा निकाल कर पढ़ना और फिर मन लगाकर कई बार पढ़ना। चाहे वह किसी प्रकार की बातें क्यों ना हो। जाने अनजाने मन को छू जाती थीं। कोरे कागज की बातें।
माया अपने पति सुधीर के साथ रहती थी। यूं तो दोनों का प्रेम विवाह हुआ था। शादी के पहले की सारी चिट्ठियाँ माया और सुधीर ने बहुत ही संभाल, सहेज कर रखा था।
विवाह के बाद सब कुछ अच्छा चल रहा था। अचानक सुधीर का तबादला किसी बड़े शहर में हो गया।
कहते हैं नारी मन बड़ा कांचा होता है। माया को उसके जाने और अकेले रहने में कई प्रकार की बातें सता रही थी। जो भी है सुधीर को जाना तो था ही। अपना सामान समेट वह शहर की ओर बढ़ चला।
माया अपने कामों में लग गई। एक सप्ताह तक कोई खबर नहीं आई। धीरे-धीरे समय बीत गया। अब तो मोबाइल था। फिर भी सुधीर बस हाँ हूं कह… कर काम की व्यस्तता बता बात ही नहीं करता था। माया इन सब बातों से आहत होने लगी।
उसे लगा सुधीर कहीं किसी ऑफिस में सुंदर महिला के साथ – – – – – “छी छी, ये मैं क्या सोचने लगी।” उसने झट कॉपी पेन निकाला और पत्र लिखने बैठ गई।
लिखने को तो वह बहुत सारी बातें लिखना चाह रही थी। परंतु केवल यही लिख सकी – – – ‘सुधीर तुम्हारे विश्वास और तुम्हारे भरोसे में जी रही हूं। पत्र लिखकर पोस्ट करके जैसे ही घर के दरवाजे पर ताला खोलने लगी। सामने पोस्टमेन खड़ा दिखाई दिया — “मेम साहब आपकी चिट्ठी।” आश्चर्यचकित माया जल्दी-जल्दी पत्र खोल पढ़ने लगी… सुधीर ने लिखा था.. ‘माया तुमसे दूर आने पर तुम्हारी अहमियत और भी ज्यादा सताने लगी है। मुझ पर विश्वास करना।
दुनिया की नजरों से नहीं मन की भावनाओं से देखना मैं सदैव तुम्हारे साथ खड़ा हूं। जल्दी आता हूं।’ कोरे कागज पर लिखी यह बातें..। माया पास पड़ी कुर्सी पर बैठ, अश्रुधार बहने लगी ।तभी मोबाइल की घंटी बजी उठी..
“हेलो” माया ने देखा पतिदेव सुधीर ने ही कॉल था। सुधीर ने कहा… “ज्यादा रोना नहीं जैसा तुम्हारा मन है वैसा ही यह कोरा कागज है। ठीक वैसे ही मैं भी उस पर लिखे अक्षरों का भाव हूँ। हम कभी अलग नहीं हो सकते। मन के कोरे कागज पर हम दोनों का नाम लिखा है। बस बहुत जल्दी आ रहा हूं। तुम्हें लिवा ले जाऊंगा।”
माया सुनते जा रही थी तुम मेरी कोरी कल्पना हो। रंग भरना और सहेजना, उसमें हंसना- मुस्कराना तुम्ही से सीखा है। बस विश्वास और भरोसा करना इस कोरे कागज की तरह। माया सामने लगे आईने पर अपनी सूरत देख मुस्करा उठी।
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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈