डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक बेहतरीन व्यंग्य – ‘गुरूजी का अमृत महोत्सव’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 219 ☆
☆ व्यंग्य – गुरूजी का अमृत महोत्सव ☆
परमप्रिय शिष्य मन्नू,
स्वस्थ रहो और गुरुओं की सेवा के योग्य बने रहो। मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हें प्राप्त है।
आगे बात यह कि तुम्हें मालूम है कि जनवरी में मैं 75 वर्ष पार कर रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि तुम जैसे मेरे सारे शिष्य मेरा अमृत महोत्सव मनाने के लिए अकुला रहे होंगे। तुम जैसे शिष्यों के होते हुए मेरा अमृत महोत्सव शानदार होगा इसमें मुझे रंच मात्र भी सन्देह नहीं है।
मेरा विचार है कि इस उत्सव की सफलता के लिए तुम मेरे निष्ठावान 50-60 शिष्यों से 10-10 हजार रुपये एकत्रित कर लो। उनसे कहना कि उनकी गुरुभक्ति की परीक्षा है और गुरु- ऋण चुकाने का अवसर आ गया है। इससे लगभग पाँच लाख रुपया प्राप्त हो जाएगा। इसमें से कुछ मेरे अभिनन्दन ग्रंथ पर खर्च होगा जो कम से कम छः सात सौ पेज का होना चाहिए।
अभिनन्दन ग्रंथ के लिए लेख मैं खुद ही लिखूँगा क्योंकि मुझसे बेहतर मुझे कौन जानता है? दूसरों को देने से लोग कई बार ऊटपटाँग लिख देते हैं जिससे मन खिन्न हो जाता है। मैंने 30-35 लेख लिख भी लिये हैं। ये सभी लेख मेरे शिष्यों के नाम से छपेंगे। बचपन से लेकर अभी तक के सारे फोटो निकाल लिये हैं जिन्हें अभिनन्दन ग्रंथ में स्थान मिलेगा।
मेरे खयाल से अभिनन्दन ग्रंथ और दीगर खर्चों के बाद दो ढाई लाख रुपया बच जाएगा। मेरा विचार है कि उस राशि को मियादी जमा में डालकर उसके ब्याज से एक ग्यारह हजार रुपये का पुरस्कार मेरे नाम से स्थापित किया जाए जो मेरे स्वर्गवासी होने के बाद भी चलता रहे। यह पुरस्कार प्रति वर्ष मेरे किसी शिष्य को ही दिया जाए ताकि मेरे जाने के बाद भी मेरे शिष्यों की भक्ति मेरे प्रति बनी रहे। इस पुरस्कार के प्रबंध की सारी जिम्मेदारी तुम्हारी होगी। इसमें कभी गफलत हुई तो तुम्हें पाप के साथ-साथ मेरा शाप लगेगा।
तो अब विलंब न करके काम पर लग जाओ। मुझे भरोसा है कि तुम हमेशा की तरह मेरे सुयोग्य शिष्य साबित होगे।
स्नेही
अनोखेलाल ‘सिद्ध’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈